Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 234
________________ * घुणाक्षरन्यायेन सत्याया निष्फलत्वम् * २०३ 'सा कोहणिस्सिया खलु कोहाविट्ठो कहेइ जं भासं । जह ण तुमं मम पुत्तो अहवा सव्वंपि तव्वयणं । ।४० ।। सा क्रोधनिःसृता खलु यां भाषां क्रोधाविष्टः कथयति यथा न त्वं मम पुत्र इति । इदं हि कुपितस्य पितुः पुत्रं प्रति वचनम्। अथवा सर्वमपि तस्य = क्रोधाविष्टस्य वचनम् । नन्विदमयुक्तं क्रोधाविष्टस्याऽपि गां गामेव वदतोऽसत्यत्वाऽभावादिति चेत् ? न क्रोधाकुलचित्तत्वेन तस्य गवि (ग्रन्थाग्रं-६०० श्लोक) गवाभिधानस्याऽप्यप्रमाणत्वादिति सम्प्रदायः । इदन्तु ध्येयम् - तत्र सम्मुग्धव्यवहारौपयिकसत्यत्वेऽपि फलौपयिकं न सत्यत्वम्, सक्लिष्टाचरणस्य निष्फलत्वादिति । ।४० ।। ननु कुपितस्य घुणाक्षरन्यायेनाऽपि सत्यभाषणेनाऽप्रशस्तक्रोधवशात् क्लिष्टकर्म बघ्नतोऽपि सत्यभाषाप्रत्ययं शुभं कर्म किमिति मवि पंडियाणं चित्तगाहगं न भवति, कोवाकुलचित्तो जं संतमवि भासति तं तु मोसमेव भवति । (दश. अ. ७/ नि. गा. २७६ चू. पृ. २३७) । फलौपयिकं न सत्यत्वमिति । वाक्समिति गुप्ति - शुभकर्मबन्धनिर्जरादिफलोपायभूतसत्यत्वस्य निषेधेनेदं सूचितं भवति यदुत- अप्रशस्तक्रोधादिकषायप्रयुक्तवचनस्यैवाऽसत्यत्वं न तु प्रशस्तक्रोधादिप्रयुक्तस्याऽपि तस्यैव तादृशफलोपायरूपत्वात्। निश्चयतः तादृशाऽध्यवसायवृत्तिप्राशस्त्यस्यैव फलौपयिकत्वमित्यादि भावनीयम् ||४०|| घुणाक्षरन्यायेनेति । घुणः = काष्ठवेधकः कृमि: । तन्निष्पन्नमक्षरमधिकृत्य प्रवृत्तो न्यायः । न्यायश्चात्र फले यादृच्छिकत्वसाधिका युक्तिः, तयेत्यर्थः । तदुक्तं वर्धमानेन 'घुणोत्किरणात्कथञ्चिन्निष्पन्नमक्षरं घुणाक्षरम् । तदिव यदकुशलेन दैवान्निष्पाद्यते तद्घुणाक्षरीयम्' ।। सत्यभाषाप्रत्ययमिति । द्रव्यतः सत्यभाषायाः शुभवाग्योगरूपत्वेन शुभकर्मप्रकृतिप्रदेशबन्धजनकत्वमर्हति, योगानुरूपत्वात्प्रकृतिप्रदेशबन्धस्य 'जोगा पयडिपएसं ' ( ) इति शिवशर्मसूरिवचनादिति मुग्धाशङ्काया भावः । न स्वातन्त्र्येणेति । प्रकृति- प्रदेशकर्मबन्धं प्रति योगस्य न स्वातन्त्र्येण हेतुत्वं किन्तु कषायसहकारितयैव, मौलं इदं तु . इति । यहाँ यह ध्यातव्य है कि क्रोधाविष्ट हो कर गाय को गाय कहनेवाली व्यक्ति के वचन में मुग्ध लोग के व्यवहार में उपयोगी ऐसा सत्यत्व होने पर भी फलौपयिक सत्यत्व यानी निर्जरादि फल का उपायभूत सत्यत्व नहीं है, क्योंकि सत्य वचन भी संक्लेश से बोलने पर निष्फल ही होता है। अतः क्रोधादिकषायप्रयुक्त सब वचन असत्य ही होते हैं। शंका :- ननु इति । अप्रशस्त क्रोधादि कषाय से अशुभकर्मबंध होता है, शुभकर्मबन्ध नहीं यह तो हमें मान्य ही है मगर अप्रशस्तक्रोधादिकषाय से प्रयुक्त सब वचन फलौपयिक सत्यत्व से शून्य ही होता है - यह बात ठीक नहीं है। देखिये, घुणाक्षरन्याय से जब कोई क्रोधाविष्ट हो कर सत्य वचन बोलेगा तब उसको कषायनिमित्तक अशुभ कर्मबन्ध होगा और द्रव्यतः सत्यवचनरूप शुभवचनयोग के निमित्त से शुभकर्मबन्ध भी होना चाहिए, क्योंकि शुभयोग तो शुभ प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध में हेतु होता है। घुणाक्षरन्याय का मतलब यह है कि जब घुण = लकडे में रहनेवाला कीडा लकडे को खाते खाते लकडे को कोरता है तब उसका प्रयास लकडे में अक्षर बनाने का नहीं है, फिर भी अनायास ही कभी कभी अक्षर के आकार बन जाते हैं। हम भी देखते हैं कि कभी कभी लकडे के फर्नीचर में कीडे छोटे छोटे छिद्र बनाते हैं तब अनायास ही कुछ डिझाइन = आकाररचना बन जाती है। लेकिन 'वे अक्षर या डिझाइन बुद्धिपूर्वक है' ऐसा कोई बुद्धिमान नहीं मानता है। उन अक्षरों को कोई प्रमाण मान कर काम नहीं करते हैं। प्रस्तुत में आशय यह है कि घुणाक्षर न्याय से क्रोधाविष्ट पुरुष का जो वचन व्यवहार से सत्य है, शुभ वचनयोगस्वरूप है, तन्निमित्तक शुभकर्मबंध भी होना ही चाहिए । १ सा क्रोधनिश्रि (निःसृता खलु, क्रोधाविष्टः कथयति यां भाषाम् । यथा न त्वं मम पुत्रोऽथवा सर्वमपि तद्वचनम् । ।४० ।। २ अत्र मुद्रितप्रतौ (सत्यं भाषमाणस्य नाप्रशस्तक्रोधवशात्क्लिष्टकर्मबन्धत्वमपि पाठान्तरम् ) इत्येवमन्यः पाठोऽपि प्रदर्शितः । 3 Wood-worm ghuna. This worm bores holes in wood and in books, which sometimes assume the shape of a letter of the alphabet. Hence its use to intimate the occurrence of something quite accidental. (from - A Handful of popular maxims Page - 26)

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