________________
२०२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.२. गा. ३९
० काकतालीयन्यायप्राप्तसंवादे भावसत्यत्वाऽयोगः पूर्व क्रोधनिःसृतामेव निरूपयति।
क्रोधनिःसृतामेवेति । ननु क्रोधनिश्रितेत्यर्थव्याख्यानं कृत्वा पुनः किमर्थं क्रोधनिःसृतेत्यस्योपादानं क्रियते? मैवम्, यथाश्रुतार्थसङ्गमनस्य वावदूकं प्रत्यभिप्रेतत्वात्, पूर्वमहर्षिभिः श्रीहरिभद्रसूरिप्रभृतिभिः क्रोधनिःसृतेत्यर्थस्य व्याख्यातत्वात्तत्रैव विवरणकारस्याऽपि स्वरसाच्च सर्वत्राऽग्रिमस्थले तथैव पूर्वप्रदर्शितार्थस्योपादानं कृतमिति ध्येयम् ।
निश्चयाङ्गभूतशुद्धव्यवहारेणार्थप्रतिपादनं कृत्वाऽऽत्मलक्षिनिश्चयनयानुरोधेनाऽऽह अथवेति। क्रोधाविष्टस्येति अप्रशस्तक्रोधाविष्टस्येति । यद्यप्यत्र भावतोऽसत्यत्वमाश्रित्य दश भेदाः प्रदर्शिता न तु द्रव्यतोऽसत्यत्वमवलम्ब्य, अत एव नन्वित्याशङ्का भवितुं नार्हति द्रव्यतः सत्यत्वेऽपि भावासत्यत्वानपायात् तथापि विसंवादबुद्धिजननतात्पर्यरूपस्य भावासत्यत्वस्याऽसत्त्वात् द्रव्यतः सत्यत्वस्य सुवचत्वाच्च नासत्यत्वमित्याशयेनाऽऽशङ्कते-नन्विति।
समाधत्ते-नेति। अप्रमाणत्वादिति। माध्यस्थ्यपरिणामवियोजकक्रोधकषायेन यदृच्छाभाषकस्य यथावस्थितार्थप्रतिपादनतात्पर्यरूपस्य भावतः सत्यत्वस्य विघटनात् क्वचित् काकतालीयन्यायेन द्रव्यतः संवादेऽपि भावतोऽसत्यत्वस्य यथार्थतात्पर्यविरहरूपस्य प्रक्रान्तस्य सत्त्वाच्चाऽसत्यत्वप्रतिपादनस्य युक्तत्वमिति भावः । सम्प्रदाय इति। तदुक्तं चूर्णी श्रीजिनदासगणिमहत्तरेण - 'तस्स कोहाउलचित्तत्तणेणं घुणक्खरमिव तं अप्पमाणमेव भवति । जहा घुणक्खरं सच्च
युक्तिसंगत ही है। ३९वीं गाथा में शिष्ट यानी बचा हुआ शेष भाग स्पष्ट ही है। अतः उनका विवरण विवरणकार ने नहीं किया है। अर्थात् शेष मान आदि पदों के अर्थ का निश्रित अर्थ में अन्वय कर के - (२) माननिश्रित, (३) मायानिश्रित, (४) लोभनिश्रित, (५) प्रेमनिश्रित, (६) द्वेषनिश्रित, (७) हास्यनिश्रित, (८) भयनिश्रित, (९) आख्यायिकानिश्रित, (१०) उपघातनिश्रित। इस तरह असत्य भाषा के दशभेद प्राप्त होते हैं।।३९ ।।
अब प्रकरणकार ४०वी गाथा से असत्यभाषा के प्रथमभेदरूप क्रोधनिश्रित भाषा का निरूपण कर रहे हैं।
गाथार्थ :- क्रोधाविष्ट हो कर जो कोई अपने लडके से कहता है कि - 'तू मेरा पुत्र नहीं है' यह वाक्य क्रोधनिःसृतमृषा भाषा है। या तो क्रोधाविष्ट व्यक्ति का सर्व वचन क्रोधनिःसृत असत्यभाषास्वरूप ही है।४०।
* क्रोधनिःसृत असत्यभाषा १/२ * विवरणार्थ :- सा. इति। क्रोधाविष्ट हो कर जो भाषा बोली जाती है वह क्रोधनिःसृतमृषा भाषा है। जैसे कि पिता अपने लडके से हि गुस्सा में कहता है कि - 'तू मेरा लडका नहीं है।' यह वचन क्रोधनिःसृत मृषावचन है या तो हम ऐसे भी कह सकते हैं कि क्रोधाविष्ट व्यक्ति का सर्व वचन क्रोधनिश्रित असत्य ही है।
शंका :- ननु..इति। गुस्सा के कारण अपने लडके को ही पिता - 'तू मेरा लडका नहीं है' - ऐसा जो कहता है उस वचन में तो सद्भूतनिषेधरूप पारिभाषिक मृषात्व रहता है। अतः उस वचन को असत्य कहना तो ठीक है, मगर क्रुद्ध व्यक्ति के सभी वचनों को असत्य कहना कैसे संगत होगा?, क्योंकि कुपित व्यक्ति का सब वचन विसंवादी ही होते हैं, संवादी नहीं - यह कोई राजाज्ञा नहीं है। जैसे कि कुपित व्यक्ति गाय को गाय कहती है तब उसका यह वचन असत्य नहीं है, क्योंकि यह वचन न तो सद्भूत का निषेध करता है और न तो असद्भूत का उद्भावन करता है, किन्तु यथावस्थित अर्थ का ही प्रतिपादन करता है तथा इस वचन के प्रयोग में वक्ता का अभिप्राय 'श्रोता को विसंवादी ज्ञान पेदा हो' - ऐसा भी नहीं है। अतः न तो द्रव्यतः असत्यत्व है और न तो भावतः असत्यत्व है। तब क्रोधप्रयुक्त इस संवादी वचन को आप कैसे असत्य कह सकते हैं?
* क्रोधप्रयुक्त सब वचन मृषा ही है * समाधान :- 'न क्रोधा. इति । आपकी यह शंका समीचीन नहीं है। क्रोध से आकुल हो कर जो पुरुष गाय को गाय कहता है वह वचन द्रव्यतः सत्य होने पर भी भावतः असत्य = अप्रमाण ही है, क्योंकि वह पुरुष क्रोधाविष्ट हो कर वचन प्रयोग करता है। क्रोधनिश्रित होने से 'मुझे यथावस्थित अर्थप्रतिपादन करना है' - ऐसे तात्पर्य से वह वाक्य प्रयुक्त नहीं होता है। अतः वह वाक्य व्यवहारतः सत्य दिखता हुआ भी परमार्थ से सत्य नहीं है - ऐसा पूर्व महर्षियों का अभिप्राय है।