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* फलौपयिकसत्यत्वमीमांसा *
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= प्रसरणयुक्ता सा = सत्या भाषा जीवानां मिथ्याभिनिवेशकृते भवति । क्लिष्टाशयानां सत्यभाषणं 'सम्यगिदं मयोक्तं' इति दुर्भाषितानुमोदनं जनयन् महाकर्मबन्धहेतुरिति परमार्थतोऽसत्यमित्यर्थ इति किमतिविस्तरेण ? । । ४२ । । उक्ता क्रोधनिःसृता । अथ माननिःसृतामाह ।
'सा माणणिस्सिया खलु, माणाविट्ठो कहेइ जं भासं । जह बहुधणवंतोऽहं अहवा सव्वं पि तव्वयणं । । ४३ ।। स्पष्टा। नवरं यथा बहुधनवानहमिति वचनमल्पधनस्याऽपि मानिनः क्वचित्केनचित्पृष्टस्येत्यवधेयम् । शेषं प्राग्वत् । ।४३।। उक्ता माननिःसृता । अथ मायानिःसृतामाह
दुष्टतरेति । केवलं द्रव्यतोऽसत्यायाः सकाशादतिशयेन दुष्टेत्यर्थः । आपेक्षिकमिदं वचनम् । तेन न कश्चिद्विरोधः । प्रसरण्रयुक्तेति। प्रसरणं चात्र न सन्निकृष्टदेशसंयोगानुकूलव्यापाररूपं किन्त्वनुमोदनरूपं द्वितीयबालताकल्पम्। तेन युक्तेत्यर्थः । अत एव मिथ्याभिनिवेशकृते भवति । अतिस्वमतिकल्पनया तत्त्वविप्लवो मिथ्याभिनिवेशः, तत्कृते भवतीत्यर्थः। अत एव महाकर्मबन्धहेतुरिति । द्रव्यतोऽसत्यभाषाजन्यकर्मबन्धापेक्षया महतः कर्मबन्धस्य हेतुरित्यर्थः। एतेन महाकर्मबन्धरूपफलौपयिकत्वस्य सत्त्वात् कथं न फलौपयिकसत्यत्वमित्याशङ्काऽनुत्थानहता द्रष्टव्या, शिष्टैस्तादृशफलौपयिकस्य सत्यत्वेनाऽव्यवहारात्, सद्भयो हितत्वस्य सत्यपदप्रवृत्तिनिमित्तस्याभावाच्च तथापि सत्यत्वव्यवहारे तून्मत्तप्रलापप्रसङ्गादिति ध्येयम् । ।४२ । ।
मानिन इति। परावज्ञाहेतुः स्वात्मन्युत्कर्षत्वारोपरूपोऽध्यवसायविशेषो मानः, तद्वत इत्यर्थः । मानिनः सर्व वचनमसत्यमिति ज्ञात्वा मानोत्पत्तेर्जातिमदादिदशविधस्थानानि सम्यगवगम्य परिहर्त्तव्यानि यतिनेति भावः । एवमग्रेऽपि उस क्रोधाविष्ट भाषक की भाषा का प्रसरण होने पर वह भाषा मिथ्याभिनिवेश की हेतु होती है। यहाँ प्रसरण का अर्थ अनुमोदन अभिप्रेत है। जब वक्ता क्रोध से वचनप्रयोग करता है तब वह वचन भावतः असत्य ही है, विराधक ही है, सत्य नहीं अर्थात् क्रोधप्रयुक्त वचन दुर्भाषित है, सुभाषित नहीं। फिर भी वक्ता को 'मैं ने तो सच्चा कहा है इत्यादि रूप से अपने असत्य वचन की अनुमोदना होती है। एक तो क्रोध से बोलना ही मूर्खता है और दूसरी मूर्खता है उसकी अनुमोदना । इस तरह क्रोधप्रयुक्त द्रव्यतः सत्यवचन दुर्भाषित की अनुमोदना द्वारा अधिक पापकर्म बंध कराता है, क्योंकि पाप की अनुमोदना पाप के पक्षपातस्वरूप होने से क्लिष्ट कर्म का हेतु है। अशुभतर कर्मबंध का निमित्त होने से क्रोधप्रयुक्त संवादी भाषा अत्यंत दुष्ट होने से परमार्थ से तो असत्य ही है - यह सिद्ध होता है। इस संबंध में अधिक विचार भी किया जा सकता है, मगर यहाँ वह आवश्यक नहीं है। अतः इस विषय का विस्तार यहाँ नहीं किया गया है । । ४२ ।।
क्रोधनिःसृतभाषारूप असत्यभाषा के प्रथम भेद का निरूपण हुआ। अब प्रकरणकार ४३वीं गाथा से क्रमप्राप्त माननिःसृत असत्यभाषा का निरूपण करते हैं।
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गाथार्थ :- मानकषाय से ग्रस्त जीव जो बोलता है कि 'मैं बहुत धनी हूँ' इत्यादि, वह माननिःसृत असत्यभाषा है या माननिःसृत सब वचन असत्य ही है । ४३ ।
* माननिःसृत भाषा २/२ *
विवरणार्थ :- श्लोक का अर्थ स्पष्ट ही है। श्लोक में जो वचन दृष्टांतरूप से प्रदर्शित किया गया है कि 'मैं बहुत धनी हूँ' - यह वचन अभिमानी और अल्प धनी व्यक्ति का है जब वह किसीसे पूछा जाता है तब यह ज्ञातव्य है । शेष अर्थ तो गाथार्थ में ही बताया गया है। विशेष विचारविमर्श यहाँ क्रोधनिःसृत मृषाभाषा की तरह जानना चाहिए । । ४३ ।।
माननिःसृत भाषा का निरूपण हुआ । अब क्रमप्राप्त मायानिःसृत भाषा को, जो असत्यभाषा का तृतीय भेद है, प्रकरणकार ४४वीं गाथा से बताते हैं ।
१ सा माननिःसृता खलु मानाविष्टो कथयति यां भाषाम् । यथा बहुधनवानहं अथवा सर्वमपि तद्वचनम् ||४३||
२ स्येव च तदव - इत्यशुद्धपाठो मुद्रितप्रतौ ।