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२०० भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.२. गा. ३९
० नियुक्तिवचनविरोधपरिहार: ० लोकेऽनन्तप्रदेशमयो लोक इत्यादिः, अलोके च वसन्ति जीवाः पुद्गला वा, न वाऽलोक इत्यादिः । कालतो दिवा रात्रौ वा । भावतस्तु क्रोधाद्वा लोभाद्वा भयाद्वा हास्याद्वा । अत्र 'एकग्रहणे तज्जातीयानां ग्रहणमिति न्यायात् क्रोधग्रहणान्मानग्रहः, लोभग्रहणाच्च मायाग्रहः, भयहास्यग्रहणेन च प्रेम-द्वेष-कलहाभ्याख्यानादिग्रह इति वृद्धसम्प्रदायः। भावाऽसत्यभेदा एव च दश अनन्तरं नियुक्तिगाथया दर्शयिष्यन्त इति ध्येयम्। दोष इति भावनीयम्। अनन्तप्रदेशमयो लोक इत्यादिः । इदं प्रथमलक्षणाक्रान्तमसत्यवचनोदाहरणम् । आदिपदेन 'नास्ति लोकः' इत्यादेर्द्वितीय-लक्षणाक्रान्तस्य ग्रहणम् । अलोके च वसन्तीति । इदं प्रथमलक्षणाक्रान्तम् । न वाऽलोक इत्यादिः । इदं द्वितीयलक्षणाक्रान्तम्, सद्भूतनिषेधपरत्वात् । आदिपदेन अलोकं लोकं वदतो ग्रहणम् । इदमपि द्वितीयलक्षणाक्रान्तम, अर्थान्तरपरत्वादित्यादिकं विभावनीयम्। एकग्रहण इति। आद्यन्तयोर्ग्रहणे मध्यमस्य ग्रहणमिति न्यायस्याऽत्र भयादिस्थलेऽव्यापकत्वेनानुपादानमिति द्रष्टव्यम् । मानग्रह इति । द्वेषात्मककषायत्वेन रूपेण मानस्य क्रोधसजातीयत्वात् । मायाग्रह इति। रागात्मककषायत्वेन रूपेण मायाया लोभसजातीयत्वात । एवमग्रेऽपि भावनीयम | अभ्याख्यानादिग्रह इति। आदिपदेन पैशुन्यादिग्रहणम् । ___ ननु भवद्भिर्द्रव्याद्यपेक्षया मृषाभाषायाश्चतुर्विधत्वमुक्तं निर्युक्तौ च दशविधत्वमुक्तमिति कथं न विरोध इति चेत्? मैवम्, तत्र दशविधत्वं मृषाभावभाषाया एव प्रतिपादितं न तु मृषाभाषाया इति न विरोधः। मृषात्वसाक्षाद्व्याप्यजातेश्चतुर्विधत्वेन प्रतिपादनेऽपि मृषात्वसाक्षादव्याप्यजातिव्याप्यजातेर्दशविधत्वेन प्रतिपादने न कश्चिद्विरोध इत्यत्र तात्पर्यमिति बोधनार्थं ध्येयमित्युक्तम। में लोक असंख्यप्रदेशमय होने से अन्यथाप्ररूपक यह वचन मृषावाद के प्रथमलक्षण से आक्रांत है। इस तरह 'अलोक में जीव या पुद्गल रहते हैं' अथवा 'अलोकाकाश नहीं हैं' इत्यादिवचन अलोकाकाशविषयक मृषावचन है। यहाँ प्रथम उदाहरण मृषाभाषा के प्रथमलक्षण से युक्त है। द्वितीय उदाहरण में असत्यवचन के पारिभाषिक लक्षण की प्रवृत्ति होती है। इस तरह काल की अपेक्षा दिन में या रात में असत्यभाषा की प्रवृत्ति होती है। भाव की अपेक्षा असत्य वचन क्रोध से या लोभ से या हास्य से या भय से प्रवृत्त होता है। यहाँ भावतः असत्यभाषा में 'एकदेशग्रहणे तज्जातीयानां ग्रहणम्' - यह न्याय प्रवृत्त होता है। इस न्याय का आशय यह है कि - कहीं पर शब्दतः एक व्यक्ति का ग्रहण होने पर उसके सजातीय अन्य का भी ग्रहण होता है। जैसे कि 'वह भजिया खाता है' ऐसा कहने पर श्रोता को खाद्यरूप से सजातीय होने से चटनी का भी भान हो जाता है कि 'वह भजिया और चटनी खाता है'। वैसे यहाँ क्रोध का ग्रहण होने से द्वेषरूप से क्रोधसजातीय मान कषाय का ग्रहण हो जाता है। लोभ का ग्रहण करने से रागरूप से लोभसजातीय माया का ग्रहण हो जाता है। वैसे भय और हास्य के ग्रहण से तत्सजातीय प्रेम-द्वेष, कलह, अभ्याख्यान (=असद् दोषारोपण) आदि का ग्रहण हो जाता है - यह अर्थ वृद्धसम्प्रदाय से प्राप्त होता है। वृद्धसम्प्रदाय पद से यहाँ ज्ञानवृद्ध = बहुश्रुत पूर्व महर्षियों का समुदाय अभिप्रेत है।
भावासत्या. इति । यहाँ यह शंका करना कि 'आप मृषाभाषा के चार भेद बता रहे हैं और नियुक्ति आदि में असत्यवचन के दश भेद बताये गये हैं। अतः इन दोनों का विरोध ही होगा, क्योंकि एक ही विषय के चार भेद और दश भेद कैसे हो सकते हैं?' - युक्त नहीं है, क्योंकि नियुक्ति आदि में असत्य वचन के जो दस भेद बताये गये हैं वे मृषावाद के मुख्य भेद स्वरूप नहीं है, मगर मृषावाद के मुख्य, चरम एवं चतुर्थ भेदरूप भावमृषावचन के भेदस्वरूप ही है। यानी चार भेद असत्यवचन के मुख्य भेद हैं और दस भेद मुख्य भेद के अवान्तरभेद हैं। अतः कोई विरोध नहीं है। ये दश भेद नियुक्ति की गाथा से ही बाद में दिखाये जाएंगे, यह ध्यान रखना जरूरी है।
* द्रव्य-भाव में असत्यवचन की चतुर्भगी * अत्र द्रव्य. इति। अब यहाँ विवरणकार द्रव्य और भाव के संयोग में विधिमुख से और निषेधमुख से असत्यवचन की एक चतुर्भंगी बता रहे हैं। वह इस तरह है कि - द्रव्य से जो वचन असत्य है, भाव से नही - वह प्रथम भंग । जो वचन द्रव्य से असत्य नहीं है मगर भाव से असत्य है - वह द्वितीय भंग। जो वचन द्रव्य से और भाव से असत्य है - वह तृतीय भंग। जो वचन न तो द्रव्य से असत्य है और न भाव से असत्य है - वह चतुर्थ भंग । यहाँ द्रव्य से जो असत्य हो मगर भाव से असत्य न हो ऐसे वचनरूप