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* तृतीयः स्तबकः *
१९७ ___ अथ सत्यभाषानिरूपणानन्तरमसत्याया भाषायाः स्वरूपं कीर्तयिष्यामि । इत्थं चोद्देशक्रमानुरूपैव संगतिरत्रेति सूचितम् ।।३७।। 'अतीन्द्रियार्थसिद्ध्यर्थं यथाऽऽलोचितकारिणाम् । प्रयासः शुष्कतर्कस्य न चासौ गोचरः क्वचित् ।। गोचरस्त्वागमस्यैव ततस्तदुपलब्धितः। चन्द्रसूर्योपरागादिसंवाद्यागमदर्शनात् ।। निश्चयोऽतीन्द्रियार्थस्य योगिज्ञानादृते न च। अतोऽप्यत्रान्धकल्पानां विवादेन न किञ्चन ।। (यो. दृ. ९८/९९/१४३) इत्यादयो योगदृष्टिसमुच्चयश्लोका व्याख्याताः, श्रुतानुसारिप्रमाणान्तराणामागमिकार्थानाश्वासनिराकरणेन साफल्यात् । एतेन यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः कुशलैरनुमातृभिः । अभियुक्ततरैरन्यैरन्यथैवोपपाद्यते।। (वा. प. १/ )इति वाक्यपदीयकारिकापि व्याख्याता, आगमिकार्थानामापाततो विरोधग्रस्तानां सम्यगवबोधाय प्रमाणान्तरोपयोगात्। इत्थमेव तत्त्वावाप्तिसम्भवात्। अत एव 'आगमेनानुमानेन योगाभ्यासरसेन च। त्रिधा प्रकल्पयन्प्रज्ञां लभते तत्त्वमुत्तमम् ।। इति पतञ्जलिवचनमप्युपपद्यते एतेन ज्ञायेरन् हेतुवादेन पदार्था यद्यतीन्द्रियाः। कालेनैतावता प्राज्ञैः कृतः स्यात्तेषु निश्चयः।। (यो. दृ. १४६) इत्यपि व्याख्यातम्, आगमस्य प्रमाणान्तरापेक्षयाऽभ्यर्हितत्वेऽविप्रतिपत्तेरित्यादिकं सूक्ष्मधिया भावनीयम्।
इत्थमिति। सत्यभाषानिरूपणानन्तरमसत्यभाषानिरूपणप्रतिपादनेनेति। उद्देशक्रमानुरूपैव सङ्गतिरत्रेति। प्राथमिकनामकीर्तनं यद्वा नाममात्रेण वस्तुसङ्कीर्तनमुद्देशः। तदुक्तं प्रमाणमीमांसायां नामधेयमात्रकीर्त्तनमुद्देशः । (प्र.मी. १/१/१) तदुक्तं स्याद्वादभाषायां च 'संज्ञामात्रेण पदार्थप्रतिपादनमुद्देशः' इति । क्रमो नाम पूर्वापरभावः । ततश्च नाममात्रेण भाषाभेदकथने यः पूर्वापरभावः तदनतिक्रमेणाऽनन्तराभिधानप्रयोजकजिज्ञासाजनकज्ञानविषयत्वरूपा सङ्गतिरत्राऽसत्यभाषानिरूपणे वर्तत इति सूचितमित्यर्थः। एतच्च परैरवसरसङ्गतिपदेन प्रतिपाद्यत इति ध्येयम् ।।३७ ।।
भावभाषाधिकारे दशधा सत्यवचः खलु। श्रीन्यायाचार्यवाग्गूढार्थोन्नयनान्निरूपितम्।।१।।
इति मुनियशोविजयविरचितायां मोक्षरत्नाभिधानायां भाषारहस्यविवरणटीकायां प्रथमः स्तबकः । (ग्रन्थाग्रं-४००० श्लोक)
का अनुमान कर के बुद्धिमान् श्रोता के प्रति शास्त्र के ऐदम्पर्यार्थ का भी अवश्य व्याख्यान करना चाहिए। यह दूसरी बात भी विवरणकार के इस कथन से कि - 'शास्त्र के अभिप्राय को जान कर मैंने सत्यभाषा का निरूपण किया' - ध्वनित होती है। सारांश यह हुआ कि - कालिकानुयोग की निष्फलता का परिहार करने के लिए और हेतुवादग्राह्य पदार्थ को आगमवादग्राह्य बनाने के निमित्त से होनेवाली आगम की आशातना से बचने के लिए शास्त्र के आभिप्रायिक अर्थ का व्याख्यान करना और उसके लिए शास्त्र के तात्पर्य को मनन-चिंतन आदि से जानना अतिआवश्यक है। बाबावाक्यं प्रमाणं यह सर्वत्र मान्य नहीं है।
अथ. इति । सत्यभाषा के निरूपण के बाद मैं असत्य भाषा के स्वरूप का निरूपण करूँगा - इस कथन से यह बात ज्ञात होती है कि - सत्यभाषा के निरूपण के बाद में असत्यभाषा के निरूपण के प्रतिपादन में उद्देशक्रम के अनुरूप ही संगति है। पूर्व में १५वीं गाथा में ग्रंथकार ने बताया था कि द्रव्य का विषयरूप से आश्रय कर के द्रव्यविषयक भावभाषा के सत्य, असत्य, मिश्र और अनुभय ये चार भेद हैं यानी द्रव्यभावभाषा के सत्य, असत्य आदि चार भेदों का नाममात्र से कथन किया था। यही उद्देश शब्द से यहाँ अभिप्रेत है। उस उद्देश में जो क्रम है इसके अनुसार प्राप्त अवसरोचित असत्यभाषा के निरूपण में उद्देशक्रम के अनुरूप ही संगति सूचित होती है। अतः 'सत्य भाषा के निरूपण के पश्चात् असत्यभाषा का निरूपण असंगत है, अनुचित है' इस शंका का परिहार हो जाता है।।३७।।