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* श्रुताभिप्रायग्रहणपूर्वकनिरूपणस्य न्याय्यत्वम् *
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'एवं सच्चा भासा, सुआणुसारेण वण्णिआ चित्ता । भासाइ असच्चाए सरूवमह कित्तइस्सामि ।। ३७ ।।
एवम् = उक्तप्रकारेण सत्याभाषा, श्रुतस्य प्रज्ञापनादेः अनुसारेण तदभिप्रायापरित्यागेन, वर्णिता लक्षणादिभिर्निरूपिता । कीदृशी ? इत्याह चित्रा = बहुभेद-प्रभेदघटितत्वात् विचित्रा, अथवा चित्तात्, 'गम्ययप्योगे' 'पञ्चम्याश्रयणात् चित्तं = अभिप्रायं गृहीत्वेत्यर्थः। एतेन श्रुतस्य न यथाश्रुत एवार्थो व्याख्येयः किन्त्वाभिप्रायिकोऽपि, अन्यथा कालिकानुयोगउपसंहारमिति विस्तरकेण निरूपितस्य पदार्थस्य सारांशकथनेन तन्निरूपणसमापनमुपसंहारः तं आहेत्यत्रान्वीयते ।
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प्रज्ञापनादेरिति। आदिशब्देन दशवैकालिकादेर्ग्रहणम् । लक्षणादिभिरिति । आदिशब्देन द्रष्टान्त-प्रयोजनादिग्रहणम्। गम्ययप्योग इति । 'गम्ययपः कर्माधारे (सि. हे. २/२/७४) इति सिद्धहेमसूत्रेण यपो गम्यत्वे पञ्चमीविधानं यथा प्रासादात् प्रेक्षत इति प्रासादमारुह्य प्रेक्षते इति । एवमत्राऽपि यपो गम्यत्वेन पञ्चमी, ततश्च चित्तं अभिप्रायं गृहीत्वेत्यर्थः प्राप्त इति भावः । एतेन श्रुताभिप्रायग्रहस्य पदार्थनिरूपणे प्रयोजकत्वं प्रदर्शितम्, शब्दार्थमात्रे मूढतया न भाव्यमिति तात्पर्यम्।
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एतेन = श्रुताभिप्रायग्रहणप्रयुक्तसत्यभाषानिरूपणप्रतिपादनेनेत्यर्थः, व्यज्यत इत्यनेनान्वीयतेऽग्रे । अन्यथा = श्रुततात्पर्यपर्यालोचनं विनैव यथाश्रुतार्थव्याख्यानाभ्युपगमे । कालिकानुयोगवैफल्यप्रसङ्गादिति । श्रुततात्पर्यमविभाव्यैव यथाश्रुतार्थाभ्युपगमे नय-निक्षेप-प्रमाणादितोऽर्थव्याख्यानरूपस्य कालिकानुयोगस्य निष्फलत्वं प्रसज्येत। तदुक्तका ही एक प्रकार है। इस संबंध में यह कथन तो एक दिग्दर्शनमात्र है। इस संबंध में अधिक विचार भी किया जा सकता हैऐसा कह कर के उपमासत्य भाषा के विवरण पर विवरणकार पर्दा डालते हैं । । ३६ ।।
उपमासत्य भाषा का वक्तव्य पूर्ण हुआ और इसके साथ साथ ही सत्यभाषा के दश भेदों का लक्षण-द्रष्टांत आदि से निरूपण पूर्ण होने से सत्यभाषा का निरूपण भी पूर्ण हुआ। अब ग्रन्थकार ३७वीं गाथा से सत्यभाषानिरूपण के उपसंहार और असत्य भाषा के निरूपण की प्रतिज्ञा करते हैं।
गाथार्थ :- इस तरह अनेकभेदवाली सत्यभाषा का श्रुत के अनुसार विवरण हुआ। अब मैं (ग्रन्थकार महोपाध्याय श्रीमद्) असत्य भाषा का स्वरूप बताऊँगा । ३७ ।
विवरणार्थ :- उक्त रीति से २१वीं कारिका से ३६वीं कारिका तक प्रज्ञापना आदि आगम के अभिप्राय को छोडे बिना लक्षणदृष्टांत आदि से सत्यभाषा का निरूपण हुआ । सत्यभाषा अनेक मुख्य भेद और अनेक अवान्तर भेदों से घटित होने से विचित्र यानी अनेक प्रकारवाली है। 'चित्ता' ऐसा शब्द जो कि ३७वीं गाथा के द्वितीय पाद के अंत में रहा हुआ है, उसका एक अर्थ चित्रा = विचित्रा बता कर अब विवरणकार उस पद के दूसरे अर्थ को बताते हैं । 'चित्ता' इस प्राकृतशब्द की संस्कृत भाषा में 'चित्तात्' ऐसी छाया = संस्कृत अनुवाद भी मुमकिन है। 'गम्ययप् कर्माधारे' इस सूत्र से यप् प्रत्यय, जो सिद्धहेमव्याकरण में संबंधककृदंत में विहित है, अध्याहार्य होने पर कर्म और आधार को पञ्चमी विभक्ति प्राप्त होती है। अतः चित्तात् का अर्थ होगा 'चित्तं गृहीत्वा' | चित्त का मतलब है अभिप्राय । मतलब कि प्रज्ञापनादि आगम के अभिप्राय का ग्रहण कर के यह सत्यभाषानिरूपण पूर्ण हुआ ।
* शास्त्र के तात्पर्य के अनुसार ही अर्थव्याख्यान मुनासिब *
एतेन. इति । यहाँ विवरणकार ने जो यह बात बताई कि शास्त्र के अभिप्राय = तात्पर्य को ग्रहण कर के मैंने सत्यभाषा का निरूपण किया इससे यह फलित होता है कि सर्वत्र शास्त्र के केवल यथाश्रुत अर्थ का व्याख्यान नहीं करना चाहिए। अर्थात्, शास्त्र के शब्दार्थ मात्र का प्रतिपादन नहीं करना चाहिए, किन्तु शास्त्र के आभिप्रायिक अर्थ = ऐदम्पर्यार्थ का भी व्याख्यान करना चाहिए। शास्त्र के आभिप्रायिक अर्थ का निरूपण करना अनावश्यक माना जाए, उसका अस्वीकार किया जाय तब तो
१ एवं सत्या भाषा श्रुतानुसारेण वर्णिता चित्रा । भाषाया असत्यायाः स्वरूपमथ कीर्त्तयिष्यामि । । ३७ ।।
२ मुद्रितप्रतौ यपः प्रयोगे पाठोऽशुद्ध ।