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* असाधारण्यनिर्वचनम् *
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अत्यन्तविलक्षणानामप्यभिधेयत्वज्ञेयत्वादिना परस्परमुपमानोपमेयभावप्रसङ्गादित्यत आह न = नैव, असम्भविनः = मुखाद्युपमेयावृत्तयो ये धर्माः = चन्द्राद्युपमानगतकलङ्कितत्वादयः', तद्ग्रहेण दुष्टा' । कुतः ? इत्याह- देशादिग्रहणेन चन्द्रमुखीत्यादौ देशोपमायां सम्भविनां प्रसन्नत्वादिधर्माणामेव ग्रहणान्न दुष्टत्वं नियामकश्चात्र समभिव्याहारविशेषादिरिति द्रष्टव्यम् । अत्यन्तविलक्षणानां च नोपमानोपमेयभावः, असाधारणधर्मघटितत्वादुपमाया इति ध्येयम् ।
स्याऽसत्त्वेन केवलान्वयित्वाभावादभिधेयानभिधेयभावेषूपमाप्रवृत्त्यापादनं न स्यादतो ज्ञेयत्वाद्युपादानं कृतम् ।
समाधत्ते-नति। प्रथमविकल्पं दूषयति-असम्भविन इति । सम्भविनामिति मुखाद्युपमेयवृत्तीनाम् । प्रसन्नत्वादीति । आदिशब्देन वृत्तत्वसम्पूर्णत्वसौम्यत्वाऽऽह्लादकत्वादिग्रहः । ननूपमेयवृत्तिधर्मापेक्षयैवोपमा प्रवर्त्तते न तूपमेयावृत्ति - धर्मापेक्षयेत्यत्र किं तन्त्रमित्यत आह- नियामक इति । समभिव्याहारविशेषादिरिति । आदिपदेन इवादिपदसन्निधानादेर्ग्रहणम्। ननु तर्ह्यत्यन्तविलक्षणानां घटतदभावादीनामुपमानोपमेयभावः किमिति नाङ्गीक्रियते ? न हि तत्र ज्ञेयत्वादिधर्मा असम्भविनः, केवलान्वयित्वादित्याशयकं द्वितीयविकल्पं सिंहावलोकनन्यायेन निराकरोति असाधारणधर्मघटितत्वादुपमाया इति । ज्ञेयत्वादीनां केवलान्वयित्वेनाऽसाधारणधर्मत्वाभावेन न तद्घटितोपमायाः प्रवृत्तिः । असाधारणधर्मत्वं च न तदितरावृत्तित्वे सति तद्वृत्तित्वं किन्तु अपेक्षाबुद्धिविशेषविषयातावच्छेदकत्वम् । तेन चन्द्रमुखीत्यादेरिव पद्ममुखीत्याद्युपमायाः प्रवृत्तावपि न क्षतिरिति । अत्यन्तवैलक्षण्यञ्च सत्त्वासत्त्वाभिलाप्यत्वानभिलाप्यत्वादियुगलापेक्षया बोध्यम् । तेन 'द्रव्यत्वेन घटसदृशः पट इत्यादेः स्याद्वादरहस्यप्रकरणवचनस्य न विरोधः, द्रव्यत्वस्य गुणाद्यवृत्तित्वेनाऽसाधारणत्वानपायादित्यादिसूचनार्थं ध्येयमित्युक्तम्।
पुरस्कार से नहीं होती है किन्तु उपमेय में संभवित ऐसे उपमानगत धर्म के पुरस्कार से होती है। आशय यह है कि मुखरूपी उपमेय में असंभवित ऐसे कलंकितता आदि धर्म के, जो कि उपमानभूत चन्द्र में विद्यमान हैं, पुरस्कार से 'चन्द्रमुखी' इत्यादि उपमावचन की प्रवृत्ति नहीं होती है, जिसके कारण आप उपमावचन में असत्यता का आपादन कर सके। इसका कारण यह है कि 'चन्द्रमुखी' यह वचन देशोपमा है, सर्वोपमा नहीं । देशोपमा की प्रवृत्ति उपमेय में संभवित ऐसे उपमानगत धर्म के पुरस्कार से होती है । अतः यहाँ उपमेयभूत मुख में संभवित ऐसे प्रसन्नत्व, आह्लादकत्व, सौम्यता आदि के, जो उपमानभूत चन्द्र में रहे हु हैं, पुरस्कार से ही उपमा की प्रवृत्ति होती है। तब इस उपमावचन को सत्य मानना ही न्यायप्राप्त है। यहाँ यह शंका कि 'उपमेय में संभवित ऐसे धर्म के पुरस्कार से ही उपमा की प्रवृत्ति होती है, न कि उपमेय में असंभवित धर्म के पुरस्कार से इसका नियामक कौन होगा?' - ठीक नहीं है, क्योंकि इसका नियामक समभिव्याहारविशेष आदि है । समभिव्याहार का मतलब है पदों का पूर्वोत्तरभाव । यहाँ समभिव्याहार विशेष से उपमान- उपमेयवाचक पदों का जो पूर्वोत्तरभाव है वह अभिमत है । तादृश समभिव्याहार ही उपमेय में संभवित धर्म के, जो कि उपमान में रहे हुए हैं, पुरस्कार से उपमा की प्रवृत्ति में नियामक है। आदि पद से यहाँ इव आदि पद का ग्रहण अभिप्रेत है ।
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* असाधारण धर्म से उपमा की प्रवृत्ति *
इसके अतिरिक्त यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि उपमानगत साधारणधर्म के, जो कि उपमेय में और अन्य में भी संभवित है, पुरस्कार से उपमा की प्रवृत्ति नहीं होती है, क्योंकि उपमा का घटक उपमानगत असाधारण धर्म ही है, साधारण धर्म नहीं । मतलब कि उपमा असाधारण धर्म से घटित है, साधारण धर्म से नहीं । अतः पूर्व में जो दोष दिया गया था कि 'उपमा यदि उपमानगत यत्किञ्चित् धर्म से प्रवृत्त होगी तब तो अभिधेयत्व आदि धर्मों के पुरस्कार से घट और घटाभाव आदि अत्यन्तविलक्षण धर्मी में भी परस्पर उपमा होने लगेगी' - इसका निराकरण हो जाता है, क्योंकि अभिधेयत्व आदिरूप साधारण धर्म को ले कर उपमा की प्रवृत्ति ही नहीं होती है, किन्तु असाधारण धर्म से ही उपमान- उपमेयभाव प्रवृत्त होता है। इस विषय में बराबर ध्यान देने की विवरणकार सूचना देते हैं।
पूर्वपक्ष:- ननु. इति। आपने सदुपमान से घटित भाषा का समावेश उपमासत्य भाषा में किया वह ठीक है, किन्तु व्यतिरेक अलंकार आदि का समावेश आप किस भाषा में करोगे? यानी सत्यभाषा के किस भेद में व्यतिरेक अलंकार का अंतर्भाव करोगे?
१ 'कलङ्कितत्वा' इति कप्रतौ पाठः । २ 'दुष्टाः' इति मुद्रितप्रतौ पाठः ।