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१९२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. ३६
० यावत्त्वनिर्वचनम् ० 'उवमासच्चा सा खलु, एएसु सदुवमाणघडिया जा। णासंभविधम्मग्गहट्ठा देसाइगहणाओ।।३६।।
खल्विति निश्चये, सा = भाषा, उपमासत्या या एतेषु = उपदर्शितभेदेषु मध्ये, सदुपमानघटिता, दोषघटितायाः सत्यत्ववारणायेदम्। इदमुत्सर्गतः, कारणतस्तूदाहरणदोषप्रतिपादनेऽपि नासत्यत्वमिति ध्येयम्।
ननु सदुपमाऽपि न सत्या 'चन्द्रमुखी'त्यादौ मुखे यावच्चन्द्रधर्मबाधात् । न चोपमानगतयत्किञ्चिद्धर्मपुरस्कारेणोपमाप्रवृत्तिः,
ननु सदुपमानघटितस्य सत्यत्वाभ्युपगमे तद्दोषप्रतिपादनस्याऽसत्यत्वं न्यायप्राप्तमित्याशङ्कायामाह इदमुत्सर्गत इति। उत्सर्गो नाम सामान्यविधानं यद्वा बलवत्कारणापोद्यत्वमुत्सर्गत्वम् । कारणतः = शिष्यमतिविस्फारणादिनिमित्तमाश्रित्य । नासत्यत्वं अधिकरणप्रवर्त्तनाद्यभावादिति गम्यम।
अथ सदपमा उपमानगतयावद्धर्मेण प्रवर्त्तते आहोस्विदपमानगतयत्किञ्चिद्धर्मेणेति विकल्पयुगली मञ्जुलमरालयगलीव विमलीभावमाबिभ्रती प्रतीतिपथमवतेतीर्यत इत्याशयेन शङकते नन्विति। तत्र प्रथमे आह-यावच्चन्द्रेति । यावत्त्वं च जगदीशमते अपेक्षाबद्धिविशेषविषयत्वम, भवानन्दमते च विषयतासम्बधेनाऽपेक्षाबुद्धिविशेषवत्त्वम। द्वित्वादिवत् अपेक्षाबुद्धिविशेषव्यङ्ग्यो विषयताभिन्नः साकल्यापराभिधानो धर्मविशेषो यावत्त्वमिति तु वयम्।
द्वितीयमाशक्य निषेधयति न चेति। अभिधेयत्व-ज्ञेयत्वादिनति। स्वमतानुसरेण अनभिधेयभावेष्वभिधेयत्व
गाथार्थ :- इनमें से जो भाषा सदुपमानघटित है वह उपमानसत्य भाषा है। उपमान के देश आदि का ग्रहण करने से असंभवित धर्मग्रहण से दुष्ट नहीं है।३६।
* सदुपमानघटित भाषा सत्य है * विवरणार्थ :- ३५वीं गाथा में जो उपमान के भेद बताये गये हैं उनमें से जो उपमान सत् यानी निर्दोष है उससे घटितभाषा उपमासत्य है। सदुपमान से घटितभाषा उपमासत्य है। इस प्रकार के प्रतिपादन से जो भाषा असदुपमान से यानी दुष्ट उदाहरण से घटित है वह भाषा सत्य नहीं है, यह फलित होता है। इसकी सूचना देने के लिए सत् ऐसा विशेषण उपमान से लगाया गया है। यह जो प्रतिपादन किया गया है कि सदुपमानघटित भाषा औपम्यसत्य है वह उत्सर्ग से है, सर्वथा, सर्वदा और सार्वत्रिक नहीं। अतः कुछ कारणों का अवलंबन कर के सदोष उपमान से घटित भाषा का प्रयोग करने पर भी वह भाषा असत्य नहीं होती है, क्योंकि कारणिक दुष्ट उदाहरणघटित भाषा का तात्पर्य अधिकरण प्रवर्तन आदि नहीं है। इस बात पर ध्यान देने की विवरणकार सूचना देते हैं। ___ शंका :- ननु. इति । आप कहते हैं कि - सदुपमान से घटित उपमाभाषा सत्य है - मगर यह ठीक नहीं है। सदुपमान से घटित उपमाभाषा भी असत्य ही है, क्योंकि 'चन्द्रमुखी' इत्यादि वाक्य में चन्द्ररूप उपमान के सब धर्म तो मुखरूपी उपमेय में बाधित हैं। चन्द्र में कलंकितता आदि धर्म है जो मुखरूपी उपमेय में नहीं है। तब 'मुख चाँद जैसा है' - यह उपमावचन सत्य कैसे होगा? यदि तुम यह कहो कि - 'चन्द्ररूप उपमान के सभी धर्मो को आगे कर के उपमा की प्रवृति नहीं होती है किन्तु यत् किञ्चित् धर्म के पुरस्कार से ही उपमा की प्रवृत्ति होती है। अतः मुख में चन्द्र की कलंकितता आदि न हो फिर भी कुछ दोष नहीं है, क्योंकि उसको छोड़ कर चन्द्र के अन्य धर्म आह्लादकत्वादि तो मुख में रहते ही हैं। अतः मुख को चन्द्र की उपमा देने में कोई दोष नहीं है' - तो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि उपमान के यत् किंचित् धर्म को आगे कर के उपमानउपमेयभाव के स्वीकार में तो अत्यन्तविलक्षण घट, घटाभाव आदि में भी उपमान-उपमेयभाव की प्रवृत्ति होने लगेगी। उनमें भी अभिधेयत्व-ज्ञेयत्व आदि अतिसाधारणधर्म रहते ही हैं। अतः उपमानगत यत्किञ्चित् धर्म की अपेक्षा से उपमान-उपमेयभाव मानना भी युक्त नहीं है। अतः उपमाभाषा सत्य नहीं है, किन्तु असत्य ही है।
* संभवित धर्म पुरस्कार से उपमाप्रवृत्ति * समाधान :- न. इति। आपका वक्तव्य तथ्यहीन है। इसका कारण यह है कि उपमा की प्रवृत्ति उपमेय में असंभवित धर्म के १ उपमासत्या सा खलु, एतेषु सदुपमानघटिता या। नासंभविधर्मग्रहदुष्टा देशादिग्रहणात् ।।३६ ।।