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* लुम्पकलीलालुम्पनम् *
वक्तव्यः - 'यद्यस्ति जीव एवं तर्हि घटादीनामप्यस्तित्वाज्जीवत्वप्रसङ्ग इति | ३ |
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हेतुः = उपपादकः । तदुपन्यासः हेतूपन्यासः । यथा किं नु यवाः क्रीयन्ते ? इति प्रश्ने उत्तरम् - येन मुधा न लभ्यन्त इति लोके । चरणकरणानुयोगे तु यदि शिष्येण पृच्छ्यते किमितीयं भिक्षाटनाद्याऽतिकष्टा क्रिया क्रियत इति ? तदा स वक्तव्यः - 'येन न कष्टतरा वेदनां वेद्यते नरकादाविति । द्रव्यानुयोगे तु यद्याह कश्चित् किमित्यात्मा न चक्षुरादिभिरुपलभ्यते ?' स वक्तव्यः 'येनातीन्द्रिय इति' । उक्तः सभेद उपन्यासः । तदेवं सुव्याख्यातं समासतो बहुभेदमिति पदम् । । ३५ ।।
एवं सप्रपञ्चमुपदर्शितमुपमानम् । अथास्योपमासत्याया लक्षणघटकतया साफल्यमाह
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वस्तुतस्तु मोक्षविषयकविधिजन्येच्छाऽपूर्वक-जीवमरणानुकूलविघटनीयव्यापारविघटकाभावप्रयुक्तप्राणव्यपरोपणस्यैव हिंसालक्षणत्वं कल्पलताद्यनुसारेणोन्नीयते, तस्यैव च सर्वथाऽधर्मत्वम् । तेन यथाविध्यनशनजिनपूजानद्युत्तारादेर्नाधर्मत्वं सर्वथेति दिक् ।
यद्यस्ति जीव एवं तर्हीति । यदि योऽस्ति स जीवो भवतीति व्याप्तिरभिप्रेता तर्हि घटादिरस्ति' इतिव्यवहारात् घटादेरप्यस्तित्वाविशेषाज्जीवत्वं प्रसज्येतेति भावः । पुनरुपन्यासचतुर्थभेददर्शनायाह-हेतुः उपपादक इति । यस्याऽभावे सत्युपपाद्यं नोपपद्यते सः । यद्वा उपपाद्याभावव्याप्याभावप्रतियोगित्वमुपपादकत्वम् । मुधेति । मुधालाभाभावाद्धेतोर्यवक्रयणमित्यर्थः । नरकादाविति । बलवदनिष्टसामग्रीविघटकत्वेन भिक्षाटनादेः करणमित्यर्थः । बहुभेदमिति मूलग्रन्थश्लोकस्थम् पदं = चरमपदम् । यद्यपि प्रकृतप्रकरणकारेण अष्टसहस्रीतात्पर्यविवरणे" आहरण-तद्देश-तद्दोषोपन्यासादिहेतुः विस्तरतस्तु मत्कृतोपदेशामृततरङ्गिणीतो बोध्यः" (अ.स.वि.पृ. ३०९) इति निगदितं, परंतु साम्प्रतं न सोपलभ्यत इत्येतावतैव स्वबुभुत्सोपशमनीया मनीषिभिः । । ३५ ।।
सदुपमानघटितेति। एतेनोपमानप्रतिपादनस्याऽर्थान्तरत्वं निरस्तम्, घटकज्ञानं विना घटितज्ञानस्यासम्भवेन निराकाङ्क्षाभिधानत्वविरहात् ।
* हेतु उपन्यास उदाहरण ४/४*
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हेतु इति । अब विवरणकार के द्वारा उपन्यास का चतुर्थ भेद, जो कि क्रमप्राप्त है, बताया जाता है। हेतु का अर्थ है उपपादक यानी समर्थक। उसका उपन्यास करना वह हेतु उपन्यास कहा जाता है। यहाँ लौकिक उदाहरण यह है कि 'आप जव को क्यों खरीदते हैं?' इस प्रश्न के उत्तर में यह कहना कि 'क्योंकि जव बिना मूल्य के नहीं मिलते हैं। यह हेतूपन्यास का लौकिक उदाहरण है। इस तरह शिष्य यदि प्रश्न करे कि - भिक्षाटनादि कष्टदायक क्रिया क्यों की जाती है? तब उसको 'यहाँ इसको सहन करने से नरक आदि में अत्यंत घोर पीडा हमें सहन करनी न पडे इसलिए ऐसा प्रत्युत्तर देना यह चरणकरणानुयोग में अधिकृत हेतूपन्यास का उदाहरण है। ठीक वैसे ही द्रव्यानुयोग में अधिकृत हेतूपन्यास का उदाहरण यह है कि- 'आँख आदि से आत्मा का प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता है?' इस प्रश्न का यह उत्तर देना कि- 'क्योंकि आत्मा अतीन्द्रिय है। जो चीज अतीन्द्रिय होती है, इन्द्रिय का अविषय है, उसका प्रत्यक्ष इन्द्रिय से कैसे हो सकता है? मतलब इन्द्रिय अगोचर वस्तु का इन्द्रिय से प्रत्यक्ष नहीं होता है। आत्मा भी अतीन्द्रिय होने से चक्षु आदि इन्द्रियाँ से ज्ञात नहीं होती है।
इस तरह उपन्यास का व्याख्यान पूर्ण हुआ । मूलग्रन्थ की ३५वीं गाथा के चरम पाद में जो चरम शब्द 'बहुभेयं' है जिसका अर्थ है 'उपमान के चारों भेदों के विविध भेद-प्रभेद हैं, इसका व्याख्यान भी अच्छी तरह से संक्षेप में पूर्ण हुआ । साथ साथ ३५वीं गाथा का विवेचन भी पूर्ण हुआ और उपमान का भी भेद-प्रभेद से विवेचन पूर्ण हुआ | | | ३५ । ।
शंका :- यहाँ औपम्यसत्य भाषा का वक्तव्य अवसरप्राप्त है। मगर आप तो उपमान के भेद-प्रभेदों का विवेचन करने को चल पडे । अतः आपका यह प्रतिपादन अर्थान्तरदोषग्रस्त है ।
समाधान :- आपकी यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि औपम्यसत्य का घटक होने से उपमान का निरूपण सार्थक ही है। इसी बात को प्रकरणकार ३६वीं गाथा से प्रदर्शित कर रहे हैं।