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१९० भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा.३५
० प्रतिनिभे विशेषविमर्शः ० प्रतिनिभस्तु छलनिपुणवादिनं प्रति प्रतिच्छलेनोपन्यासः। यथा - "एगंमि नयरे एगो परिव्वायगो सोवण्णेणं खोरएणं तहिं हिंडति, सो भणति जो ममं असुअं सुणावेति तस्सेतं देमि खोरयं । तत्थ एगो सावगो, तेण भणियं - 'तुज्झ पिया मह पिउणो धारेइ अणूणगं सयसहस्सं । जइ सुयपुव्वं दिज्जसु, अह न हु तं खोरयं देहि।। त्ति । अयं च लोके।
चरणकरणानुयोगे च येषां सर्वथा हिंसायामधर्मस्तेषामनशनविषयचित्तोद्रेकभङ्गादात्महिंसायामप्यधर्म एवेति तदकरणप्रसङ्गः । द्रव्यानुयोगे पुनः - 'अदुष्टं मद्वचनमि'ति मन्यमानो यः कश्चिदाह - 'अस्ति जीव' इत्यत्र वद किञ्चित् । यद्यपि वावदूक इति स कतया ज्ञातत्वमुक्तमिति । अथवा यथारूढमेव ज्ञातमेषः । तथाहि अत्राऽयं प्रयोगः - नास्त्यश्रुतपूर्वं किञ्चित् श्लोकादि ममेत्यभिमानधनं ब्रूमो वयम् - अस्ति तवाश्रुतपूर्वं वचनं तव पिता मम पितु रयत्यन्यूनं शतसहस्रमिति यतेति ।" इत्यधिकं व्याख्यातम । अत्र यदि पर: 'श्रुतमेवेदं मया, परं तन्मिथ्येत्यपि मया पश्चाच्छुतमि ति वदेत, तदा 'यत्त्वया पश्चाच्छुतं तन्मृति त्वया श्रुतं न वा? यदि श्रुतं तर्हि लक्षं देहि, अश्रुतं चेत्, तदैनं देही'त्यादिवचनोपन्यासः स्वधिया विभावनीयः।
येषां = लुम्पकानाम्, सर्वथा सर्वप्रकारेण, हेतुतः स्वरूपतोऽनुबन्धतश्चेति यावत् । अनशनविषयचित्तोद्रेकभङ्गादिति। आत्महिंसारूप-तीव्रक्षुत्पिपासाधातुक्षोभादिजनकानशनविषयको यः चित्तस्योद्रेकः = उत्साहः तस्य भङ्गादिति । स्वहिंसायामधर्मत्वप्रतिसन्धानेन तीव्रक्षुधादिना वा यथाविध्यनशनविषयकचित्तोत्साहभङ्गस्य प्रमत्तयोगरूपत्वेन प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणस्य हिंसालक्षणस्य तादृशात्महिंसायामपि सत्त्वेन तत्र अधर्मत्वं स्यात् । न च तदिष्टम्, अत एव हिंसात्वस्य हेतुस्वरूपानुबन्धाधर्मत्वव्याप्यत्वं निरस्तम्, व्यभिचारात्।
* प्रतिनिभ उपन्यास ३/४ * प्रति. इति । अब विवरणकार क्रमप्राप्त प्रतिनिभ उपन्यास का विवेचन करते हैं। वादी छल आदि के प्रयोग में निपुण हो तब उसके सामने विरुद्ध छल का उपन्यास करना जिससे उसकी स्थिति 'साँप ने छ दर निगला' ऐसी हो जाय। वैसा प्रतिछल का उपन्यास प्रतिनिभ उपन्यास कहा जाता है। यहाँ लौकिक उदाहरण एक परिव्राजक का है। यह संक्षेप में इस तरह है कि - 'एक संन्यासी एक नगर में सुवर्णमुहरों से भरा हुआ बोरा ले कर के फिरता है और वह बोलता है कि - 'जो मुझे न सुना हुआ सुनायेगा उसे मैं यह सुवर्णमुहरों का बोरा देनेवाला हूँ। मगर जो जो लोग सुनाने के लिए आते हैं उनकी बातें सुन कर अंत में यह कह देता है कि - मैंने यह कहानी तो पूर्व में ही सुनी हुई है। मगर सेर को सवा सेर मिलना मुश्किल नहीं है। एक श्रावक उसके पास आया और बोला कि - तेरे पिताजी को मेरे पिताजी ने पूरा १० लाख रूपैया दिया था और वह उन्होंने वापस नहीं लौटाये हैं। यदि यह तूने यह सुना है तो १० लाख रूपैया दे दे और यदि नहीं सुना है तो यह सुवर्णमुहरों का बोरा दे दे, क्योंकि पहले कभी न सुनी हुई बात मैंने तुझे सुनायी है। श्रावक की बात सुनते ही संन्यासी हक्का-बक्का हो गया।
चरण. इति। अब व्याख्याकार चरणकरणानुयोग में अधिकृत प्रतिनिभ उपन्यास को बताते हुए कहते हैं कि - जो लोग (स्थानकवासी) हिंसा में सर्वथा अधर्म ही मानते हैं उनके प्रति यह कहना चाहिए कि - यदि हिंसा में सर्वथा अधर्म ही है तब आप अनशन कैसे कर सकेंगे? क्योंकि अनशन करने पर आत्महिंसा तो होती ही है। आपके हिसाब से वह भी अधर्म ही है। इसी सबब अनशन करने में जरूरी चित्त का उत्साह भग्न होने से अनशन की प्रवृत्ति ही नहीं बनेगी। द्रव्यानुयोग में अधिकृत प्रतिनिभ उपन्यास का उदाहरण यह है कि - 'मेरा वचन सत्य ही है' - ऐसा माननेवाला अभिमान का पुतला कोई मनुष्य बोले कि 'मैं कहता हूँ कि - जीव है आप इसके खिलाफ अपना वक्तव्य प्रदर्शित करो'। तब उस वाचाट पुरुष को कहना चाहिए कि-'जीव है = जीव विद्यमान है = विद्यमान जीव है = जो विद्यमान है वह जीव है' ऐसा माने पर तो घट आदि जड पदार्थ भी जीव बन जायेंगे, क्योंकि वे भी विद्यमान हैं। इस तरह छल से उसका पराभव करना यह प्रतिनिभ उपन्यास है।
१ एकस्मिन्नगरे एकः परिव्राजकः सौवर्णेन खोरकेण तत्र भ्रमति। स भणति यो ममाऽश्रुतं श्रावयति तस्मायेतत्खोरकं ददामि। तत्रैकः श्रावकः, तेन भणितम् - 'तव पिता मम पितुर्धारयत्यनूनकं शतसहस्रं । यदि श्रुतपूर्व देहि, अथ न तं (श्रुतं) खोरकं देहि।' इति ।
२ विषयाचित्तो. इति मुद्रितप्रतौ पाठोऽशुद्धः।