________________
* मद्यपान-मांसभक्षणादेर्निर्दोषत्वविचार: *
१८५ च स्थलचरा' इति । तदिदमाकर्ण्य श्राद्धकार्पटिकेनोक्तं यान्यर्धमध्यपतितानि तानि किं भवन्तीति? तूष्णीम्भूतः कार्पटिक इति लोके। चरणकरणानुयोगे तु यदि कश्चिद्विनेयः कञ्चिदसद्ग्रहं गृहीत्वा न सम्यग् वर्त्तते स खलु तद्वस्तूपन्यासेनैव प्रज्ञापनीयः, यथा कश्चिदाह - न मांसभक्षणे दोषः, न मद्ये न च मैथुने। प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला।।१।। ( ) इदं च किलैवमेव युज्यते, प्रवृत्तिमन्तरेण निवृत्तैः फलाभावान्निर्विषयत्वेनाऽसम्भवाच्च । 'तस्मात् फलनिबन्धननिवृत्तिनिमित्तत्वेन प्रवृत्तिरप्यदुष्टैवेति । इति दत्तोत्तरस्य प्रत्युत्पन्नमतेः पुरुषस्य।
मद्ये = मधुनि पीयमान इति गम्यते। मैथुने, क्रियमाणे इति गम्यते । एवमेव = यथोक्तमेव । फलाभावादिति । प्राप्तिपूर्वको हि निषेधः सफलो भवति न त्वप्राप्तिपूर्वकः, अप्रसक्ते निषेधाभावात्, अन्यथा गगनभक्षणनिवृत्तेरपि सफलत्वं प्रसज्येत । अतो मांसभक्षणप्रवृत्तिः स्वविषयकनिवृत्तेः सफलत्वसम्पादकतया निर्दोषेति भावः। निर्विषयत्वेनेति निर्विषयत्वापत्त्येत्यर्थः। असम्भवाच्चेति। निवृत्तेरित्यत्राऽप्यनषज्यते। अयं भावः, निवृत्तेः सविषयकपदार्थत्वात विषयस्याऽसत्त्वे निवृत्तिपदप्रतिपाद्यस्याऽसम्भवात। गगनवत मांसं यद्यभक्षणीयं स्यात्तदा मांसभक्षणनिवृत्तेरसम्भवः स्यात गगनभक्षणवत् मांसभक्षणस्याऽप्यप्रसिद्धिप्रसकतेरिति । अतो मांसभक्षणात्मकप्रवृत्तिः स्वविषयकनिवृत्तेः सत्त्वसम्पादकतयाऽपि निर्दोषेति हृदयम। इदमेवाह फलनिबन्धनेति । भावितार्थमेव । ___ समाधत्ते-तत्रोच्यत इत्यादिना। कथमिति। मांसभक्षणादिनिवृत्तेर्दुष्टप्रवृत्तिपरिहारात्मकत्वरूपाऽऽद्यपक्षस्वीकारे मांसभक्षणादिरूपप्रवृत्तेः दुष्टत्वमकामेनाऽपि स्वीकर्तव्यमिति भावः। अदुष्टनिवृत्तिपरिहारात्मकप्रवृत्तेरपीति । अदुष्टविषयकपरिहारात्मकत्वेन यदि महाफलत्वं तदा मांसभक्षणादिनिवृत्तिरूपादुष्टविषयकपरिहारात्मकत्वेन मांसभक्षणादिप्रवृत्तेरपि महाफलत्वं प्रसज्येत। न च मांसभक्षणादिनिवृत्तेरदुष्टत्वमसिद्धमिति वाच्यम् तस्या महाफलजनकत्वेनाऽदुष्टत्वस्य न्याय्यत्वात्, अन्यथा वदतो व्याघातः प्रसज्येत । अपिना यत्याश्रमादिनिवृत्तेरपि महाफलत्वप्रसङ्गापादनं सूचितम्। तदुक्तं हारिभद्रवृत्तौ "निवृत्तेरप्यदुष्टत्वात् तन्निवृत्तेरपि प्रवृत्तिरूपाया महाफलत्वप्रसङ्ग" इति। पूर्वापरविरोध इति। तस्य केवलं मांसभक्षणादेर्निर्दोषत्वमभिप्रेतं न तु महाफलजनकत्वमपि, द्वितीयविकल्पस्वीकारे च मांसभक्षणादौ महाफलजनकत्वमपि सिध्यतीति विरोधः। तदुक्तमष्टकप्रकरणवृत्तौ श्रीजिनेश्वरसरिणा - हो जाते थे और जो फल भूमि पर गिरते थे वे स्थलचर प्राणी हो जाते थे"। तब एक श्रावक ने, जो कि वहाँ सन्यासी के वेश में उपस्थित था और अक्ल का पुतला था, सन्यासी की धोती ढीली करने के लिए एक प्रश्न किया कि - 'जो फल समुद्र और भूमि के मध्य में गिरते थे वे क्या होते थे?' प्रश्न को सुनते ही सन्यासी चुप-चाप वहाँ से रफूचक्कर हो गया। यहाँ श्रावक ने संन्यासी से प्रस्तुत की गई वस्तु का अवलम्बन कर के ही संन्यासी को मूक कर दिया। यह तद्वस्तु उपन्यास का लौकिक उदाहरण है।
* चरणकरणानुयोगाधिकृत तद्वस्तूपन्यास उदाहरण १/४ * चरण. इति । अब विवरणकार चरण-करणानुयोग में अधिकृत तद्वस्तु उपन्यास के लोकोत्तर दृष्टांत को बताते हुए कहते हैं कि - यदि कोई शिष्य कदाग्रहग्रस्त हो कर सम्यक् वर्तन न करे, तब तद्वस्तु उपन्यास से यानी उसके द्वारा प्रदर्शित हेतु का विपरीत तर्क से ग्रहण कर के अपनी ओर से प्रदर्शन कर के उसको समझाना चाहिए। जैसे कि कोई शिष्य बोले कि - "मांस - भक्षण या मद्यपान या मैथुनसेवन में कुछ भी दोष नहीं है, क्योंकि यह जीवों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। हाँ, यदि मांसभक्षण आदि की निवृत्ति करे तो उसका महान फल उसे प्राप्त होता है, मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि मांसभक्षण आदि में प्रवृत्त जीव सदोष है या इसकी प्रवृत्ति दुष्ट है'। यह वचन युक्त ही है, क्योंकि प्रवृत्ति के बिना निवृत्ति का कुछ फल मिलता नहीं है। आशय यह है कि जिसमें प्रवृत्ति हो सके उसकी निवृत्ति का कुछ न कुछ फल हो सकता है। जिसमें प्रवृत्ति ही कभी संभवित नहीं है उसकी निवृत्ति का फल क्या हो सकता है? अन्यथा गगनभक्षण की निवृत्ति का फल सबको अनायास ही प्राप्त हो जायेगा, क्योंकि गगनभक्षणनिवृत्ति सदा के लिए हैं ही। मगर किसीको भी गगनभक्षणनिवृत्ति का फल प्राप्त नहीं होता है। इससे सिद्ध होता है कि जिसमें प्रवृत्ति संभव हो उसीकी निवृत्ति से कुछ फल प्राप्त हो सकता है। इस जगत में मांसभक्षण में कुछ लोग प्रवृत्ति करते हैं, तब मांसभक्षण की निवृत्ति
१ कप्रतौ - 'तस्मात्' पदं नास्ति ।