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* साधर्म्यसमजातिनिरुक्तिः * ___ द्रव्यानुयोगे त्वेकान्तनित्यो जीवः, अमूर्त्तत्वात् आकाशवदिति प्रयोगे कर्मवदमूर्त्तत्वेऽनित्या' स्यादिति । एवं व्यभिचारोदाहरणात्तु कर्म अमूर्तमनित्यं चेत्ययं वृद्धदर्शनेनोदाहरणदोष एव, यथाऽन्येषां साधर्म्यसमा जातिरिति ध्येयम्।१। करिणां गर्दभस्य च। भक्षयेत् तत्त्वसिद्ध्यर्थं सर्वसंकल्पवर्जितम्।। (ज्ञा.सि. १/१३) इति वचनं, तथा प्रज्ञोपायविनिश्चयसिद्धिकृतः "गम्यागम्यादिसङ्कल्पं नात्र कुर्यात् कदाचन। मायोपमादियोगेन भोक्तव्यं सर्वमेव हि।। (प्र.वि.सि. ४/१६) इति वचनं, च निरस्ते वेदितव्ये, महामोहविलसितत्वेन तथाप्रवृत्तेर्बलवदनिष्टानुबन्धित्वाच्च । एतेन मांसभक्षणादिप्रवृत्तेः स्वविषयकनिवृत्तेः सत्त्व-सफलत्वसम्पादकतया निर्दुष्टत्वं निरस्तम्, एवमेव पापकर्मणोऽपि स्वविषयकध्वंसादेः सत्त्व-सफलत्वसम्पादकतया देवानाम्प्रियस्य निर्दुष्टत्वप्रसङ्गाच्च । न चैतदृष्टमिष्टं वेति । ततश्च यं प्रति यद्विषयकनिवृत्तेर्महाफलत्वं तं प्रति तस्य सदोषत्वमिति स्थितम । तेन न कोऽप्यतिप्रसङग इति विभावनीयम।
कर्मवदिति। उत्क्षेपणादिकर्मवदमूर्त्तत्वेन जीवोऽनित्यः स्यादिति प्रतिकूलाभिप्रायेण प्रयोग इति भावः । व्यभिचारोदाहरणादिति । उत्क्षेपणादौ कर्मणि हेतोरमूर्त्तत्वस्य सत्त्वेऽपि नित्यत्वस्य साध्यस्याऽभावेन हेतोर्व्यभिचारित्वं, साध्याभावववृत्तित्वस्याक्षत्वात्। वृद्धदर्शनेनेति जिनदासगणिमहत्तरादिमतेन, तदुक्तं चूर्णौ "जं अरूवि तं निच्चं भवइ-तं कहं? उक्कोचण-आउंटण-पसारण-गमणादीणि कम्माणि, ताणिवि अरूवीणि अह अपुव्वाणि (? अणिच्चाणि), तम्हा अणेगंतिगो एस हेउत्ति।" अगस्त्यसिंहसूरिणा त्वनिष्टापादनपूव व्यभिचारप्रदर्शनं कृतम्। यथा - "जति अरूवित्तं णिच्चत्तणे कारणं बुद्धिरपि ते णिच्चा आवण्णा, ण य तदत्थि, तम्हा अणेगंतितो हेतु।" इति। अन्येषां = नैयायिकानाम् । साधर्म्यसमा जातिरिति । अस्य च "कर्मवदमूर्त्तत्वेऽनित्यः स्यादितीत्यनेनाऽन्वय इति सूचनाथ ध्येयमित्युक्तम् । उदाहरणदोष एवेत्यनेन सहाऽन्वयस्तु न कर्तव्यः, साधर्म्यसमजातेरुदाहरणदोषत्वाभावात्, तत्र साधर्म्यसमलक्षणस्यासत्त्वाच्च। साधर्म्यण प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमजातिरिति। तदुक्तं गौतमीयन्यायसूत्रे "साधम्यवैधाभ्यामुपसंहारे तद्धर्मविपर्ययोपपत्तेः साधर्म्य-वैधर्म्य समौ" (न्या.सू. १/३/२) इति। न चास्ति विशेषहेतुरत्र येन गगनसाधान्नित्यो जीवो न पुनः कर्मसाधादनित्य इति । है। विनायकं प्रकुर्वाणो रचयामास वानरम्! __ 'प्रश्लेष. इति'। इसके अतिरिक्त बात यह है कि - 'न मांसभक्षणे दोषः' इत्यादि पद्य में नञ् का यानी निषेधसूचक शब्द का प्रयोग करने से ही अर्थ की संगति होती है। तब पद्य का आकार ऐसा होगा कि - न मांसभक्षणेऽदोषः इत्यादि। तब पद्य का अर्थ यह होगा कि - मांसभक्षण, मद्यपान और मैथुनसेवन में दोष नहीं है ऐसा नहीं अर्थात् अवश्य दोष है, क्योंकि मांस आदि भूत यानी जीवों की उत्पत्ति का स्थान है। अतः मांसभक्षणादि सदोष ही है। या तो हम पद्य के उत्तरार्ध का ऐसा अर्थ भी कर सकते हैं कि मांसभक्षणादि भूतों की यानी पिशाच-राक्षसादि समान जीवों की प्रवृत्ति है, विवेकी पुरुषों की नहीं। अतः सिर्फ अशिष्ट पुरुषों की प्रवृत्ति होने से मांसभक्षण आदि सदोष है - यह सिद्ध होता है" - इस तरह श्लोक का व्याख्यान कर के कदाग्रहाविष्ट शिष्य से उपन्यस्त श्लोक का ही आलंबन ले कर उसको समझाना - यह चरणकरणानुयोग में अधिकृत तद्वस्तूपन्यास का उदाहरण है।
* द्रव्यानुयोग में तद्वस्तु उपन्यास * द्रव्यानु. इति । अब विवरणकार द्रव्यानुयोग में अधिकृत यानी जीवादि द्रव्य संबंधी व्याख्या के अधिकार में तद्वस्तु उपन्यास के उदाहरण का प्रदर्शन करते हुए कहते हैं कि यदि परवादी ऐसा प्रयोग करे कि - 'जीव एकान्तनित्य है क्योंकि अमूर्त है। जो अमूर्त होता है वह एकान्तनित्य होता है जैसे कि आकाश' - तब उससे प्रदर्शित हेतु का ही विपरीत अभिप्राय से ग्रहण कर के उसके दाँत खट्टे कर देने चाहिए कि - 'जीव अनित्य है, क्योंकि वह अमूर्त है। जो अमूर्त होता है वह अनित्य होता है जैसे कि उत्क्षेपण-अपक्षेपण आदि कर्म (क्रिया)। यह तद्वस्तु उपन्यास हुआ। श्रीजिनदासगणिमहत्तर के अभिप्राय से तो यहाँ व्यभिचारदोष के उद्भावन से उदाहरणदोष ही है। व्यभिचारदोष उद्भावन इस तरह है कि - 'उत्क्षेपण-गमनादि क्रिया में अमूर्त्तत्वरूप हेतु रहता है फिर भी एकान्तनित्यत्व, जो कि वादी को साध्यरूप से इष्ट है, वहाँ नहीं रहता है। इस तरह साध्याभाव के अधिकरण में रह
१ 'त्यं' इत्यशुद्धः पाठः मुद्रितप्रतौ ।