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* दुरुपनीते निदर्शनान्तरप्रदर्शनम् *
१८३ दुरुपनीतं च दुष्टनिगमनम्। तत्र लोके मत्स्यग्रहणपरो भिक्षुरुदाहरणं "कन्थाचार्य श्लथा ते" इत्यादिकाव्यादवसेयम् । चरणकरणानुयोगे तु - "'इय सासणस्सऽवन्नो, जायइ जेणं ण तारिसं बूया। वाए वि उवहसिज्जइ, णिगमणतो जेण तं चेव ।। त्ति ( ) द्रव्यानुयोगेऽपि -" २जीवचिंताए वादिणा तहा भणितव्वं वादे जेण ण जिप्पइ परवाइणत्ति ।। (द. वै. जि. चू. पृ. ५४)।४। विष्णुनेव दानघा इत्येवंवादिना आत्मा हन्तव्यतयोपनीतो धर्मान्तरस्थितपुरुषाणामिति। तद्दोषता तु प्रतीतैवास्येति" इत्येवमुदाहरणं प्रदर्शितमिति ध्येयम्।
भिक्षुरिति । कश्चिद् भिक्षुः जालव्यग्रकरो मत्स्यबन्धाय चलितः केनचित् जालस्य कन्थात्वमाशक्य किञ्चिदुक्तः, तेन च तस्योत्तरमसङ्गतं दत्तम् । अत्र च वृत्तम् - कन्थाऽऽचार्य! श्लथा ते, ननु शफरवधे जालम्, अश्नासि मत्स्यान्? ते मे मद्योपदंशान्, पिबसि ननु? युतो वेश्यया, यासि वेश्याम्?। कृत्वाऽरीणां गलेऽह्री क्व नु तव रिपवः? येषु सन्धिं छिनद्मि, चौरस्त्वं? द्यूतहेतोः, कितव इति, कथं? येन दासीसुतोऽस्मि || इति । अत्र कन्था नाम | सूत्रग्रथितो जीर्णो वस्त्रखण्डो यद्वा तिर्यस्यूतबहुवस्त्रखण्डसमूहः । तदुक्तम् - त्यक्तं वस्त्रं गृहस्थेन, बहिः प्रक्षाल्य यत्नतः। सहस्रं डोरिकं दद्यात्कन्था सेत्यमिधीयते।। शेषं तु प्रश्नोत्तररूपेणाऽतिरोहितार्थमेवेति न तन्यते।
चूर्णौ त्वत्रेदमुदाहरणमेवमुक्तम् - "तच्चणिओ मच्छए मारितो रण्णा दिट्ठो भणितो - किं मच्छए मारेसि? भणति - अविलंको न सक्केमि पातुं। मज्जं पिएसी? भणति - महिला ढोयं ण देति। महिला वि ते? किं जातपुत्तभंड छड्डेमि? णं पुत्ता वि ते? किं ताइं? खत्तं खणामि! खत्तं पि खणसि? किं वा कम्म खोट्टिपुत्ताणं? खोट्टिपुत्तो सिं? कुलपुत्तो को वा बुद्धसासणे पव्वयंति?" (द.वै.अ.चू.पृ. २७)
द्रव्यानुयोगेऽपि। जिनदासगणिमहत्तरवचनं प्रदर्शयति - जीवचिंताए त्ति। शेषमतिरोहितार्थम् । अत्र स्थानाङ्गवृत्तौ तु - "यथा नित्यः शब्दो घटवत् । इह घटे नित्यत्वं नास्त्येवेति कुतस्तत्साधर्म्याच्छब्दस्य नित्यत्वमस्तु? अपि त्वनित्यआदि लिंगवाले हैं, जैसे कि विपक्ष में घट । अर्थात् यहाँ व्यतिरेकव्याप्ति इस तरह है कि - जो व्यक्त श्वासादि चिह्नवाले नहीं होते हैं वे जीव नहीं होते हैं जैसे जड घट । घट में व्यक्त श्वास आदि नहीं है और वह जीव भी नहीं है। मगर एकेन्द्रिय ऐसे नहीं हैं क्योंकि उनमें व्यक्त श्वासादि लिंग का अभाव नहीं है। अत वे जीव ही हैं - यह सिद्ध होता है"। - यह प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि इस प्रयोग से अपने में भी एकेन्द्रियपने की या अपने ही पराजय की आपत्ति आती है। इस तरह यह प्रयोग आत्मोपन्यासरूप है। असाधारण्य के कारण इस प्रयोग में आत्मोपघातजनकता होने से इस उदाहरण में दोष है - यह जान पडता है। इस तरह आत्मोपन्यास तद्दोष का व्याख्यान पूर्ण हुआ। यहाँ विशेष वक्तव्य मोक्षरत्ना से ज्ञातव्य है।
* दुरुपनीत तद्दोष उदाहरण ४/३ * दुरुपनीतं. इति । तद्दोष का अंतिम भेद है दुरुपनीत, जिसका अर्थ है दुष्ट निगमन । अर्थात् जिस उदाहरण का उपसंहार सदोष हो वैसा उदाहरण दुरुपनीत सद्दोष उदाहरण कहा जाता है। यहाँ लौकिक दृष्टांत मत्स्यग्रहण में तत्पर बौद्ध भिक्षु का है। यह उदाहरण 'कन्था' इत्यादि श्लोक से प्रसिद्ध है, जिसमें बौद्ध भिक्षु से जो प्रश्न किये जाते हैं उनका प्रत्युत्तर वह गलत-सदोष देता है ऐसा वर्णन पाया जाता है। संक्षेप में वह उदाहरण इस प्रकार है कि बौद्ध भिक्षु जब मछली को पकडने के लिए जाता है तब उसके हाथ में मछली पकड़ने की जाल को देख कर किसीको उसमें कथडी की शंका हो जाती है और उसे बात करता है कि - आचार्य! आपकी कथडी बहुत शिथिल और टूटी फूटी है। तब वह कहता है कि - 'यह तो मत्स्य जाल है'। 'अरे! क्या तुम मछली खाते हो?' 'हाँ, कभी कभी दारु पीता हूँ तब उसके साथ मछली खाता हूँ'। 'अरे! क्या तुम दारु भी पीते हो? - 'ना, रोज नहीं, मगर कभी कभी वेश्या के वहाँ जाता हूँ तब पीता हूँ' | 'अरे, क्या तुम वेश्यागामी हो'? 'नहीं जनाब! रोज नहीं, कभी कभी दुश्मन को खतम कर के वेश्या के वहाँ जाता हूँ'। 'अरे! क्या तुम्हारे दुश्मन भी है'? 'हाँ, जिसके वहाँ चोरी करता हूँ-डाका डालता हूँ - वे मेरे दुश्मन हो जाते हैं | 'क्या तुम चौरी भी करते हो?' 'नहीं, रोज नहीं, मगर जुआर में जब हार जाता हूँ तब चौरी कर
१ इति शासनस्याऽवर्णो जायते येन न तादृशं बूयात्। वादेऽप्युपहस्यते निगमनतो येन तदेवेति।। २ जीवचिन्तायां वादिना तथा भणितव्यं वादे येन न जीयते परवादिनेति ।