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१८० भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. ३५
० नयवादाश्रयणस्योपादेयत्वविचार: ० लोके । लोकोत्तरे तु चरणकरणानुयोगमधिकृत्य-'णो किंचि वि पडिकूलं कायव्वं भवभएणमण्णेसिं । अविणीतसिक्खगाण उ जयणाइ जहोचितं कुज्जा।। ( ) द्रव्यानुयोगमधिकृत्य तु द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकयोरन्यतरेणान्यतरं चोदयेत्, दुर्वादिनां द्विराश्यादिप्रतिपादकानां निरासाथ त्रिराश्यादिकं वा स्थापयेत् । अत्र चाऽऽद्ये पक्षे साध्यार्थाऽसिद्धेः, द्वितीये तु विरुद्धभाषणादेव दुष्टत्वमित्यवसेयम् ।२। तच्चातिविस्तरभयान्नेह प्रतन्यते, सूक्ष्मधिया स्वयं पूर्वोत्तरग्रन्थेन विभावनीयम्।
प्रतिकूलमिति। तदुक्तं हलायुधकोशे - 'प्रतिकूलं प्रतिलोमं, प्रतीपमुक्तं प्रसव्यमेकार्थम्' । (हला. ४/७४३) इति । प्रातिकूल्यं चाचार-सिद्धान्तादिकं प्रति द्रष्टव्यम् । अभयस्येति । सुप्रसिद्धत्वादिह नोच्यते। उदाहरणदोषता चाऽस्य श्रोतुः परापकारकरणनिपुणबुद्धिजनकत्वादवसेया। एवं शठं प्रति शठत्वं कुर्यादित्यादेः सदोषतोन्नेया | स्थापयेदिति। ननु त्रिराशिस्थापनस्य स्थापनोदाहरणे समावेशः कर्तव्यः, अन्यथा स्थापयेदित्यनुपपत्तेरिति चेत्? अहो! प्राज्ञता प्रकर्षणाऽज्ञता! शब्दमात्रसाम्येण मूढतया न भाव्यम्। पूर्वोक्तं किं विस्मरसि? यदुत स्वस्मात् सहसा जातदोषाच्छादनस्य स्थापनायामभिप्रेतत्वादिति । अत्र चाऽऽभोगपूर्वं विरुद्धसिद्धान्ताश्रयणेन प्रातिकूल्यस्य प्राधान्यादिति विवेकः सूक्ष्मेक्षिकया कार्यः ।
साध्यार्थासिद्धेरिति। सर्वनयानां स्वविषये सत्यत्वात् परनयेऽसत्यत्वापादनपूर्वं स्वस्मिंस्सत्यत्वस्थापनरूपस्य साध्यार्थस्याऽसम्भवात प्रत्यत परनयेऽप्रामाण्योदभावनस्याऽसदभूतोदभावनरूपत्वेन स्वस्मिन नये मिथ्यात्वाक्रान्त
विषावेगविधुरीभूततायाः सरगुरुणाऽपि निराकर्तमशक्यत्वात। बभाण सम्मतौ महावादी "णिययवयणिज्जसच्चा, सव्वणया परवियालणे मोहा। ते उण ण दिट्टसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा।। (सं. त. १/२८)। ___ इदं तु ध्येयं - सम्यगालोचनायां नयान्तरजन्यबाधज्ञानस्य नयान्तरजन्यज्ञानेऽप्रतिबन्धकत्वात् स्याद्वादव्युत्पत्त्यर्थितया शिष्याणामंशग्राहिषु नयवादेष्वपवादतः प्रवृत्तिः "अशुद्ध वर्मनि स्थित्वा ततः शुद्धं समीहते' इतिन्यायेन अभयकुमार का है। चंडप्रद्योत ने अभयकुमार को कपट से केद किया था। मगर कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तैली? बाद में बुद्धिनिधान अभयकुमार ने सब लोगों के सामने ही चंडप्रद्योत का अपहरण किया। ठीक ही कहा है, ठंडा लोहा गरम लोहे को काट डालता है। इस उदाहरण से श्रोता में 'तुम बनो इंट, तो मैं बनूँ पत्थर' ऐसी पापबुद्धि उत्पन्न होने से यह उदाहरण दुष्ट = दोषवाला है - यह तो स्पष्ट ही ज्ञात हो जाता है हाथ कँगन को आरसी क्या?
इस तरह अन्यत्र यानी लोकोत्तर उदाहरण में चरण-करणानुयोग के अधिकार में ऐसा नहीं बोलना चाहिए कि जो चरण-करण के प्रतिकूल हो। जैसे कि "संसार के भय से अन्य किसी जीव के प्रति प्रतिकूल वर्तन नहीं करना चाहिए। अविनीत शिष्यों के प्रति यतना से यथोचित पद्धति के द्वारा काम करना चाहिए"। यह कथन प्रतिकूल आचरण के त्याग का उपदेश देता है।
* द्रव्यानुयोगाधिकृत प्रतिलोम तद्दोष * द्रव्या. इति। चारित्रसंबंधित विधि-निषेध वचन को चरण-करणानुयोग में अधिकृत प्रतिलोम उदाहरण में बताने के बाद अब विवरणकार द्रव्यानुयोग में अधिकृत प्रतिलोम तद्दोष उदाहरण का व्याख्यान करते हुए कहते हैं कि - जीवादि द्रव्यों के संबंध में द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय को एक-दूसरे का सहारा ले कर परास्त करना चाहिए। अर्थात् द्रव्यार्थिकनय की युक्ति से प्रतिकूल युक्ति दे कर पर्यायार्थिकनय से द्रव्यार्थिकनय के वक्तव्य का निरसन करना चाहिए और पर्यायार्थिकनय की युक्ति से प्रतिकूल युक्ति दे कर द्रव्यार्थिकनय से पर्यायार्थिक नय के वक्तव्य का निरास करना चाहिए। इस तरह द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय में परस्पर वाद-प्रतिवाद कराना चाहिए। अथवा द्विराशि आदि की स्थापना करनेवाले दुर्वादी के मत का निरसन करने के लिए त्रिराशि आदि की स्थापना करनी चाहिए। यह भी द्रव्यानुयोगाधिकृत प्रतिलोम दुष्ट उदाहरण है। __शंका :- द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिक नय के वाद-विवाद को सदोष मानने का कारण क्या है? वैसे द्विराशि के खंडन के लिए त्रिराशि के स्थापन में भी क्या दोष है जिससे दुष्ट उदाहरण में इनका समावेश किया गया है?
१ नो किञ्चिदपि प्रतिकूलं कर्तव्यं भवभयेनाऽन्येषाम् । अविनीतशिक्षकाणां तु यतनया यथोचितं कुर्यात्।।