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१७८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. ३५
० आत्मकर्मसिद्धिा याऽन्येऽप्यनुशासिताः। एवमसहना अपि शिष्या मार्दवसम्पन्नमेकं शिष्यं निश्राभूतं कृत्वाऽनुशासनीयाः । उदाहरणदेशता चास्य लेशत एव, तथानुशासनात्। एवं तावच्चरणकरणानुयोगमधिकृत्योक्तम्। द्रव्यानुयोगमधिकृत्य त्वन्यापदेशेन लोकायतो वक्तव्यः, 'अहो! धिक्कष्टं नास्ति येषामात्मा, तदभावे दानादिक्रियावैफल्यात्। न च तद्वैफल्यम्, सत्त्ववैचित्र्यानुपपत्तेरि'त्यादि।४। उक्तः सभेद उदाहरणदेशः।।१।।
तद्दोषश्च बहुव्रीह्याश्रयणाद् दुष्टमुदाहरणम्। तच्चतुर्द्धा, अधर्मयुक्त-प्रतिलोमात्मोपन्यास-दुरुपनीतभेदात्। तत्राऽधर्मयुक्ते लोके केवलोत्पत्तावनुत्पन्नकेवलत्वेनाऽधृतिमन्तं 'चिरसंसृष्टोऽसि गौतम! चिरपरिचितोऽसि गौतम! मा त्वमधृति कार्षीरि'त्यादिनाऽनुशासयताऽन्येऽप्यनुशासिताः, तदनुशासनार्थं द्रुमपत्रकाऽध्ययनं च प्रणिन्य इति। ननु प्रकृतेऽन्येऽनुशासिताः तर्हि अस्यानुशास्तावन्तर्भावः कर्तव्यः? न कर्तव्यः, तत्र प्रशंसाद्वाराऽनुशासनस्याभिप्रेतत्वात्, अत्र त्वन्यनिश्राद्वाराऽन्यानुशासनस्याभिप्रेतत्वादिति दिक् । अन्यापदेशेनेति । अन्यथा द्वेषादिना न सम्प्रतिपद्येतेति हेतोः।
लोकायत इति । लोके आयतं = विस्तीण प्रसिद्धं वा प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमभ्युपगच्छतीति लोकायतः नास्तिक इत्यर्थः । 'भवतु दानादिक्रियावैफल्यं किं नश्छिन्नम्? न ह्यभ्युपगमा एव बाधायै भवन्ती'ति पराशयं दूषयितुमुपक्रमतेन चेति। सत्त्ववैचित्र्यानुपपत्तेरित्यादि। एकजातीयेष्टाऽनिष्टसाधनसम्प्रयोगेऽपि पुरुषभेदेन सुखदुःखाद्यनुभववैचित्र्यान्यथानुपपत्तेरित्यर्थः। तदुक्तं 'क्ष्माभृद्रङ्कयोर्मनीषिजडयोः सद्रूपनीरूपयोः, श्रीमदुर्गतयोर्बलाबलवतोर्नीरोगरोगार्तयोः। सौभाग्यासुभगत्वसङ्गमजुषोस्तुल्येऽपि नृत्वेऽन्तरं, यत्तत्कर्मनिमित्तमित्युपगमो वै सर्वथा युक्तिमान्' ।। तदुक्तं जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेनापि "जो तुल्लसाहणाणं फले विसेसो ण सो विणा हेउं । कज्जत्तणओ गोयमा! घडोव्व हेऊ अ से कम्मं ।। (वि.आ.भा. २०६८)। एतेन दानादिक्रियाणां दृष्टधान्याद्यवाप्तिफलककृष्यादिक्रियावत् दृष्टमनःप्रसादादिफलकत्वमेवत्यपास्तम् अदृष्टफलोद्देशं विना स्वस्वत्वध्वंसानुकूलव्यापारेण मनःप्रसादाद्यनुपपत्तेः। अस्तु वा तथा, तथापि मनःप्रसादादेरपि फलवत्त्वाऽन्यथानुपपत्त्याऽदृष्टस्यैव सिद्धेरित्यधिकं अदृष्टसिद्धिवादेऽनुसन्धेयम् ।
तस्य = उदाहरणस्य दोषस्तद्दोष इत्यत्र धर्मे धर्मिणोऽभेदोपचाराश्रयणेऽस्वरसेनाऽऽह बहुव्रीह्याश्रयणादिति। तस्य = उदाहरणस्य दोषो यस्मिंस्स तद्दोषः । बहुव्रीहेरन्यपदार्थप्रधानसमासत्वाद दुष्टमुदाहरणमित्यर्थः| समासप्रयोजनं चैकपद्यमैकस्वर्यमेकविभक्तिकत्वमित्यन्यत्र विस्तरः। नलदामकुविन्द इति। तदुक्तं स्थानागवृत्तौ "पुत्रखादकस्वयं भगवंत महावीरस्वामी ने गौतम का अवलंबन कर के यानी गौतम को संबोधन कर के अन्य शिष्यों का द्रुमपत्रक अध्ययन में अनुशासन किया था, ठीक वैसे ही अन्य नम्र-विनयी शिष्य का अवलम्बन = संबोधन कर के अन्य असहनशील शिष्यों का अनुशासन = नियन्त्रण करना चाहिए। यहाँ वक्तव्य का अंश अनुशासन ही अभीष्ट होने से इसका तद्देश = उदाहरणदेश में समावेश किया गया है। यह चरण-करणानुयोग में अधिकृत वक्तव्य हुआ। इसी तरह द्रव्यानुयोग के अधिकार में अन्य को संबोधन कर के नास्तिक को कहना चाहिए कि - "जिसके मत में आत्मा नहीं है उसको बहुत सी कठिनाइयाँ आयेगी। जैसे कि - आत्मा न होने पर दानादि क्रिया निष्फल हो जायेगी, क्योंकि आत्मा के अस्वीकार में दानादि क्रिया का फल किसको मिलेगा? यहाँ यह शंका कि - 'दानादि क्रिया की निष्फलता इष्ट ही है' - इसलिए निराधार हो जाती है कि - वैसा मानने पर जीवों की विचित्रता न घटेगी। आशय यह है कि कोई सुखी तो कोई दुःखी, कोई अमीर तो कोई गरीब, कोई ज्ञानी तो कोई मूर्ख - ऐसी विचित्रता जीवों में हम पाते हैं, वह क्यों है? इसके उपर जब विचार किया जाय तब यह मानना ही पडेगा कि जिसने पूर्व भव में दानादि शुभ क्रिया का सेवन किया है वह यहाँ अमीर है, सुखी है। जिसने दानादि नहीं किया है, वह यहाँ दुःखी है, गरीब है। आत्मा की स्वीकृति में तो यह सब ठीक तरह संगत हो पाता है, मगर आत्मा की अस्वीकृति में तो जीवों की विचित्रता का समाधान और दानादि क्रिया की निष्फलता की अनिष्टापत्ति का निराकरण कथमपि संभव नहीं है। अतः आत्मा का स्वीकार आवश्यक है"। इस तरह नास्तिक को सन्मार्ग पर लाना चाहिए। जहाँ साक्षात् नास्तिक से यह वाद करने में उसे साधु से द्वेष, अप्रीति आदि हो जाने का संभव है, वहाँ अन्य के साथ बातें कर के उसके मन में सन्मार्ग के प्रति झुकाव लाने का यह अच्छा कीमिया है। इस तरह उपमान का द्वितीय भेद उदाहरणदेश = तद्देश का व्याख्यान पूर्ण हुआ।