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१७६ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. १. गा. ३५
● उपालम्भानुशास्त्योर्वैलक्षण्यम् "अस्त्यात्मा" इति वितर्कः, "नास्त्यात्मा" इति कुविज्ञानं च नोपपद्येत धर्म्यभावे धर्मस्यैवाऽसम्भवादित्यादि । उदाहरणदेशता चास्य परलोकादिप्रतिषेधवादिनो नास्तिकस्य जीवसद्भावसाधनाद्भावनीया | २ |
पृच्छा = प्रश्नः । तत्र 'क्वाऽहमुत्पत्स्य' इति भगवति पृष्टे षष्ठ्यां नरकपृथिव्या 'मिति भगवतोत्तरितः सप्तमनरकपृथिवीगमननिमित्तचक्रवर्तिसाम्राज्यसम्पादनायाऽभ्युद्यतः कृतमालेन हतः कूणिक उदाहरणं लोके । लोकोत्तरेऽपि प्रष्टव्या आचार्या मिगावती देवी। आयरिओ दोसु - [ व्य. भा. श. ३७५] इति व्यवहारभाष्यवचनमनस्मर्तव्यम् । वितर्कः ज्ञानात्मको विशिष्टशब्दात्मको वा विपरीततर्कः, चार्वाकं प्रतीति गम्यते । कुविज्ञानं = कुत्सितं विज्ञानं, चार्वाकस्येति सामर्थ्यगम्यम्। धर्म्यभाव इति। प्रसक्ते देहादावननुरूपत्वेन प्रतिषेधाद्, धर्म्यभावस्य धर्माभावव्याप्यत्वाच्च प्रसिद्धविर्तकाद्यसम्भवदोषकालुश्यं चार्वाकशिरःपतितमात्मानभ्युपगमे गीर्वाणगुरुणाऽपि पराणेतुमशक्यमिति तात्पर्यम्। इत्यादीति । आदिशब्देन जातिस्मृति - प्रत्यभिज्ञान-संशयादेर्ग्रहणम् । परलोकादिप्रतिषेधवादिनः परलोक-पुण्य-पाप-जीवादिप्रतिषेधवादिनो जीवसद्भावसाधनेन केवलं जीवविप्रतिपत्तिनिराकरणादुदाहरणदेशता एतेनाऽस्य द्रव्यानुयोगाधिकृताऽपायोदाहरणान्तर्भावो निरस्तः, तत्र परवादिनोपस्थापितविप्रतिपत्तिनिराकरणाय विस्तरतो दोषदर्शनस्याभिप्रेतत्वात्, अत्र तु परवादिनो विप्रतिपत्त्येकदेशनिराकरणाय सङ्क्षेपतो दोषदर्शनस्याभिप्रेतत्वादिति दिक् ।
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नन्वस्यानुशासनरूपत्वेन द्रव्यानुयोगाधिकृतानुशास्तौ समावेशः कर्तव्यः ? न कर्तव्यः, तत्र प्रशंसाद्वाराऽनुशासनस्याऽभिप्रेतत्वात्, अत्र तु केवलं दोषोपदर्शनद्वाराऽनुशासनस्याभिप्रेतत्वादिति विभावनीयं सुधीभिः ।
कूणिक इति । भावार्थस्त्वेवम् श्रेणिकराजपुत्रः कूणिकः महावीरं पप्रच्छ - भदन्त ! चक्रवर्त्तिनोऽपरित्यक्तकामा मृताः क्वोत्पद्यन्ते? भगवताऽभिहितं - सप्तमनरकपृथिव्यां ततोऽसौ बभाण- अहं क्वोत्पत्स्ये ? स्वामिनोक्तं - षष्ठ्यां, स उवाच - अहं किं न सप्तम्यां ? स्वामिना जगदे-सप्तम्यां चक्रवर्तिनो यान्ति, ततोऽसावभिदधे - किमहं न चक्रवर्त्ती ? यतो ममाऽपि हस्त्यादिकं तत्समानमस्ति । स्वामिना प्रत्यूचे - तव रत्ननिधयो न सन्ति ततोऽसौ कृत्रिमाणि रत्नानि कृत्वा भरतक्षेत्रसाधनप्रवृत्तः कृतमालिकयक्षेण गुहाद्वारे व्यापादितः षष्ठीं गतः । विस्तरस्तु व्याख्याप्रज्ञप्तितोऽवसेयः । आग्रहात् = तात्पर्यात्। तेनैव = प्रच्छकतात्पर्यविषयीभूतैकदेशेनैव ।
मेरा विरोधी तर्क और 'आत्मा नहीं है' ऐसा तुम्हारा गलत ज्ञान कभी भी संभव नहीं है, क्योंकि मेरी युक्ति और तुम्हारा कुविज्ञान धर्म है, जिसका धर्मी = आश्रय जड पदार्थ नहीं हो सकते हैं। आशय यह है कि चैतन्यरूप से प्रतीयमान धर्मों का आश्रय चेतनस्वरूप धर्मी ही होना चाहिए, अन्यथा धर्म-धर्मिभाव ही न घटेगा । दूसरी बात यह है कि धर्मी के बिना धर्म नहीं रह सकता है। अतः वितर्क-कुविज्ञानादि के आश्रयरूप में आत्मारूप धर्मी की सिद्धि होती है।
उदाहरणदेशता. इति । यहाँ यह शंका कि - 'यहाँ तद्देश का यानी उदाहरणदेश का अधिकार चल रहा है, न कि उदाहरण का। आप तो यहाँ आत्मारूप धर्मी की ही सिद्धि करने को चल पडें हैं, यह ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ धर्मिसिद्धि का नहीं, मगर धर्मसिद्धि का निदर्शन बताना चाहिए। अतः आपने जो निदर्शन बताया है उसका समावेश उदाहरण में करना युक्त है, उदाहरणदेश में नहीं' - इसलिए निराधार हो जाती है कि नास्तिक को परलोक, जीव, पुण्य, पाप आदि अनेक पदार्थ में विप्रतिपत्ति है फिर भी परलोक आदि सब की सिद्धि का यहाँ प्रयास नहीं किया जाता है, मगर विवाद के एक देशभूत जीव की सिद्धि करने का यहाँ प्रयत्न है। अतः यह उदाहरण नहीं है, मगर उदाहरणदेश = तद्देश ही है।
* पृच्छा तद्देश ३/२ *
पृच्छा. इति । तद्देश का तृतीय भेद है पृच्छा यानी प्रश्न । यहाँ श्रेणिकपुत्र कूणिक का द्रष्टांत है। संक्षेप में यह प्रसंग इस तरह है कि - जब भगवान् श्रीमहावीरस्वामी की देशना चल रही थी तब श्रेणिक महाराज का पुत्र कूणिक भगवंत से प्रश्न करता है कि - हे भगवंत! मैं कहाँ उत्पन्न होनेवाला हूँ ?, तब भगवंत कहते हैं कि 'तू छट्ठी नरक में जायेगा' । तब कूणिक सातवीं नरक में जाने के लिए चक्रवर्तीसाम्राज्य का सम्पादन करने को प्रयत्नशील होता है और छ खंड को जितने के लिए जब तमिस्रा गुफा के पास पहुँचता है तब कृतमाल नाम का यक्ष उसे मार डालता है और वह छट्टी नरक में जाता है। यहाँ पृच्छा को बताने का तात्पर्य
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