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१७४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. ३५
० अनुशास्तित्रैविध्योपदर्शनम ० एवं । भरतकथानकेनाऽपि एकदेशेन वैयावृत्त्यगुणोपसंहासद् गुरोः शिष्याप्रमादोपबृंहणमुचितम्। इदमपि लौकिकं चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्योक्तम् ।
द्रव्यानुयोगमधिकृत्य पुनरात्मास्तित्ववादिनः तन्त्रान्तरीयान् प्रति वक्तव्यम्, यदुत साध्वेतद् यदात्मास्तीत्यभ्युपगतं, किन्त्वकर्ताऽयं न भवति ज्ञानादीनां कृतिसामानाधिकरणनियमादित्यादि। उदाहरणदेशता त्वस्याऽऽत्मनः कर्तृत्वदेशसाधन एव शास्तिः = प्रशंसा | सा विधेयेति यत्रोपदिश्यते सोऽनुशास्तितद्देशः । लोकप्रशंसेत्यनन्तरं यावद् वक्तव्यमिति गम्यम् | यथा साधुलोचनपतितरजःकणापनयनेन लोकसम्भावितशीलकलंका तत्क्षालनायाऽऽराधितदेवताकृतप्रातिहार्या चालनीव्यवस्थापितोदकाच्छोटनोद्घाटितचम्पागोपुरत्रया सुभद्रा 'अहो शीलवती'ति लोकेनानुशासिता। एकदेशस्यैवेति लोकानुशास्तिमात्रस्यैव, तदुक्तं स्थानाङ्गवृत्ता "इह च तथाविधवैयावृत्त्यकरणादिनाऽप्युपनयः सम्भवति, तत्त्यागेन च महाजनानुशास्तिमात्रेणोपनयः कृतः इत्याहरणतद्देशतेति" | तदुक्तं हारिभद्रवृत्तावपि - "अप्रमादवद्भिः साधूनां कणूकापनयादि कर्तव्यमिति विहायानुशास्त्योपसंहारमाहे'ति। (दश. हा. वृ. पृ. ३३)। प्रकृतेऽनुशास्तिः त्रिविधाऽवगन्तव्या स्वपरोभयभेदेन । व्यवहारसूत्रवृत्तौ श्रीमलयगिरिसूरिभिः- उपदेशप्रदानमनुशिष्टिः स्तुतिकरणं वाऽनुशिष्टिः ।..... तत्र यत् आत्मानमात्मनाऽनुशास्तिः साऽऽत्मानुशास्तिः। यत्पुनः परस्य परेण चानुशासनं सा परानुशिष्टिः । तत्रोदाहरणम् चम्पायां नगर्यां सुभद्रा। सा हि सर्वेरपि नागरिकजनैरनुशिष्टा यथा 'धन्याऽसि त्वम्, कृतपुण्याऽसि त्वमिति (व्य. सू. १/३७४) इत्यादिना यदुक्तं तदप्यत्रानुसन्धेयम्।
ज्ञानादीनामिति। आदिपदादिच्छादेर्ग्रहणम्। कृतिसामानाधिकरण्यनियमादिति कृतिसामानाधिकरण्यव्याप्तेः, यस्मिन्नधिकरणे ज्ञानादयः प्रतीयन्ते तत्रैव कृतेरपि प्रतीतेः । ज्ञानादयः स्वसमानाधिकरणमेव कृतिं जनयन्ति। ततश्च कृतिज्ञानादीनां सामानाधिकरण्यं = एकाधिकरणवृत्तित्वं सिध्यति, अन्यथा कृतिज्ञानादीनां व्यधिकरणत्वेन जन्यआवश्यक हो वहाँ द्रष्टांत के एक देश का, जो कि उपसंहार में उपयोगी है, कथन करना तद्देश उपमानरूप से यहाँ इष्ट है। इसके चार भेद हैं (१) अनुशास्ति, (२) उपालंभ, (३) पृच्छा, (४) निश्रावचन । अनुशास्ति का मतलब है सद्गुण के उत्कीर्तन से उपबृंहण करना-प्रेरणा देना । अनुशास्ति में सुभद्रा की कथा प्रसिद्ध है। यहाँ तद्देश उपमान की बात चल रही है। अतः सती सुभद्रा का संपूर्ण कथानक नहीं, लेकिन अनुशास्ति का भाग, जिसमें सती सुभद्रा के शील गुण की दृढता यानी चारित्र की निर्मलता की परीक्षा होने के बाद सब लोक-'महासती सुभद्रा का चरित्र निष्कलंक है, अनुपम है' इत्यादि प्रशंसा करते हैं, अनुशास्ति तद्देश उपमान है। उक्त द्रष्टांत का यह भाग उपसंहार में यानी 'गुणवान की उपबृंहणा-प्रशंसा करनी चाहिए' - इस भाग में उपयोगी है। अतः वह तद्देश यानी उदाहरण का एक भाग कहा जाता है।
एवं भरत. इति। महासती सुभद्रा के कथानक में जैसे शीलगुण की प्रशंसा का भाग तद्देश कहा जाता है, ठीक वैसे ही भरत महाराजा के कथानक के एक देश से वैयावच्च-साधुभक्ति गुण का उपसंहार कर के शिष्य के अप्रमत्तभाव की उपबृंहणा करना भी उचित ही है। इस तरह सुभद्रा के लौकिक उदाहरण का और भरत महाराजा के पूर्वभव के कथानक के भाग का, जो चरणकरणानुयोग में अधिकृत है, व्याख्यान हुआ।
* द्रव्यानुयोग में अनुशास्ति तद्देश उपमान * द्रव्यानु. इति। अब व्याख्याकार द्रव्यानुयोग में अधिकृत अनुशास्ति तद्देश को बताते हुए कहते हैं कि जो परदर्शनी सांख्य आदि आत्मा का स्वीकार करते हुए भी आत्मा को कर्ता नहीं मानते हैं उनके प्रति आत्मा के स्वीकार की प्रशंसा करते हुए आत्मा में कर्तृत्व की सिद्धि करनी चाहिए कि-"अहो! आपने आत्मा के अस्तित्व का स्वीकार किया है वह बहुत अच्छा किया है, मगर आत्मा अकर्ता नहीं हो सकती है, क्योंकि ज्ञानादिगुण कृति के समानाधिकरण होते हैं" | आशय यह है कि जैसे आत्मा में ही ज्ञान, चैतन्य की सिद्धि होती है वैसे कृति यानी प्रयत्न की भी आत्मा में ही प्रतीति होती है। जैसे कि - 'चेतनोऽहं कर्ता' इस प्रतीति से अहंपदार्थ आत्मा में ही चैतन्य का और कर्तृत्व यानी कृतिआश्रयत्व का भान होता है। अतः चैतन्य की तरह आत्मा में कृति की प्रतीति होने से आत्मा में कर्तृत्व की अनायास सिद्धि हो जाती है, क्योंकि कृतिआश्रयत्व प्रयत्नआश्रयत्व ही कर्तृत्व है। व्यवहार में भी देखा