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* आत्मसिद्धिा *
१७७ जिज्ञासितमर्थम्, पृष्ट्वा च समाचरणीयानि शक्यानि अशक्यानि तु नेति । उदाहरणदेशता चास्याऽभिहितैकदेश एव प्रष्टुराग्रहात्तेनैव चोपसंहारादवसेया। इदमपि लोकं चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्य।
द्रव्यानुयोगमधिकृत्य तु 'नास्त्यात्मे तिवादी नास्तिकः पृच्छयते, 'कुतो नास्त्यात्मे ति? स चेद् ब्रूयात् 'सतोऽपरोक्ष' इति, तदाऽभिधेयम्, "भद्र! कुविज्ञानमेतत्ते, विवक्षाऽभावे विशिष्टशब्दानुपपत्तेः, इत एवात्मसाधनादि'ति।३। निश्रावचनं च, तत् यद् एकं कञ्चनं निश्राभूतं कृत्वा विचित्रप्रतिपादनम्। या द्रुमपत्रकाध्ययने भगवता गौतमनिश्र
सतोऽपरोक्ष इति । अत्राऽनादरे षष्ठी, तदुक्तं सिद्धहेमशब्दानुशासने 'षष्ठी वाऽनादरे' (सि.श.२/२/१०८) इति। आत्मनः त्वन्मते पारमार्थिकत्वे सत्यपि परोक्षत्वादभाव इति नास्तिकाशयः। हेतुस्तु परोक्षत्वमेव, प्रयोगस्त्वेवम्विवादाध्यास्ति आत्मा असन् परोक्षत्वात् शशशृङ्गवदिति।
ननु परोक्षत्वं किं तव यदुताऽन्येषामिति विकल्पयामलमविरललुलल्लोलकल्लोललीलायितमनुशीलयत्प्रतिकलमुन्मीलति। तत्र यदि तव परोक्षत्वमिति परिकल्प्यते तदा रत्नाकरजलसिकताकणसंख्यापरिमाणादिना हेतोर्व्यभिचारकामुककुट्टिनीकटुकटाक्षेक्षितता केन पराक्रियेत? नाऽपि परेषां परोक्षत्वमसत्त्वसाधने समर्थम्, 'आत्मा नास्तीति ते कुविज्ञानमप्यन्येषां परोक्षत्वेन नभोऽम्भोजराजिविराजिसौरभ्यलीलामविकलमाकलयेदेव। यदि च तदप्यन्यैरनुमीयत एवातो न खकुसुमायितमित्युच्यते रुच्यवचोवैचित्रीचञ्चुभिस्तदा तत्किं मत्पक्षे पाणिपिहितं स्यादित्याशयेन समाधत्तेविवक्षाऽभावे विशिष्टशब्दानुपपत्तेरिति। उन्मत्तादिवचनेऽतिप्रसङ्गवारणाय विशिष्टेत्युक्तम्। भूतचतुष्कमनाश्रयमाणाया विवक्षाया विशिष्टशब्दजनकत्वेन तदाश्रयतयाऽऽत्मसाधनादित्याशयेनाऽऽह - इत एवेति। प्रयोगस्त्वेवम् - विवादाध्यासित आत्मा सन् विवक्षाजन्यविशिष्टशब्दान्यथानुपपत्तेरिति दिक् ।
तद्देशचरमभेदमाह-निश्रेति। विचित्रप्रतिपादनमिति। पुरुषान्तरोद्देशेन पुरुषान्तरप्रतिपादनस्याभिप्रेतत्वाद् विचित्रेत्युक्तं अन्यप्रबोधार्थमन्यनिश्रया प्रतिपादनमित्यर्थः। द्रुमपत्रकेति। अयं सक्षेपार्थः श्रीगौतमं तापसादिप्रव्रजितानां होने से तथा प्रश्न करनेवाले को जवाब के अमुक अंश में ही तात्पर्य होने से इसका पृच्छा तद्देश में समावेश होता है। यह लौकिक द्रष्टांत चरणकरणानुयोग में अधिकृत है।
* द्रव्यानुयोग में पृच्छा-तद्देश उपमान * द्रव्यानु. इति । अब विवरणकार द्रव्यानुयोग में अधिकृत पृच्छादेश को बताते हुए कहते हैं कि - जब नास्तिक कहे कि - 'आत्मा नहीं है' - तब उसे प्रश्न करना चाहिए कि - आत्मा क्यों नहीं है? यदि नास्तिक कहे कि - 'आप की दृष्टि से सत्=पारमार्थिक होता हुआ भी जीव हमें दिखता नहीं है - परोक्ष है इसलिए असत् = काल्पनिक है'। तब नास्तिक को कहना चाहिए कि - भाग्यशाली! आपका यह ज्ञान गलत है, क्योंकि आत्मा की आपके वचन से हि सिद्धि होती है। देखिये, आप जो वचनप्रयोग करते हैं कि - आत्मा नहीं है - वैसा विशिष्ट शब्दप्रयोग घट पट आदि जडपदार्थ क्यों नहीं करते हैं? इस प्रश्न का आपका जवाब यही होगा कि - मुझे यह प्रश्न करने की इच्छा है, - बोलने की इच्छा है जो घट आदि जड पदार्थ में नहीं है। अब आप ही सोचिए कि बोलने की इच्छा = विवक्षा घट आदि पदार्थ में क्यों नहीं होती है और आपमें ही क्यों होती है? सोचने पर इसका जवाब आपको अपने आप मिल जायेगा कि विवक्षा जड पदार्थ का धर्म नहीं है, मगर जडेतर = चेतन पदार्थ का धर्म है और वह चेतन पदार्थ ही आत्मा है, आत्मा को छोड कर दूसरा कुछ भी नहीं है। इस तरह विशिष्टशब्दजनक विवक्षा, जिसका आश्रय घट आदि जड पदार्थ हो ही नहीं सकते हैं, ही अपने आश्रय के रूप में आत्मा की सिद्धि करती है। इस तरह वाद में नास्तिक को प्रश्न कर के उसके दांत खट्टे कर देने चाहिए। तद्देश के तृतीय भेद पृच्छा का विवरण समाप्त हुआ।
* निश्रावचन तद्देश ४/२ * तद्देश का चतुर्थ भेद है निश्रावचन अर्थात् किसी एक को निश्रा = आलंबन कर के अन्यके बोध के लिए प्रतिपादन करना । जैसे १ वा परिहर्तव्यानीति मुद्रितप्रतौ। अस्माभिः कप्रतिपाठो गृहीतः ।