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१५६ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. १. गा. ३२
● मुक्तावलीकारवचनापाकरणम् ० उत्कटत्वं तादृशबह्ववयवकत्वं न तु जातिरित्यन्ये । तत्त्वमत्रत्यं मत्कृतवादरहस्यादवसेयम् ।। ३२ ।। उक्ता भावसत्या | ८ | मुद्भूतरूपावयवप्रवेशसिद्धिः तत्सिद्धौ च तादृशप्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभावसिद्धिरिति । अत एवावयविसिद्धिप्रकरणे मुक्तावल्यां - "तत्र तदन्तःपातिभिर्दृश्यैरेव दहनावयवैः स्थूलदहनोत्पत्तेरुपगमादिति यदुक्तं तदपि निरस्तम् अतितप्ततैलादौ दृश्यदहनावयवकल्पनायां मानाभावात्, नियतारम्भनिरासेन तादृशप्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावे मानाभावाच्च । तदुक्तं प्रवचनसारवृत्तावमृतचन्द्रेण "व्यक्तस्पर्शादिचतुष्काणां च चन्द्रकान्तारणियवानामारम्भकैरेव पुद्गलैरव्यक्तगन्धाव्यक्त-गन्धरसाव्यक्तगन्धरसवर्णानामब्ज्योतिरुदरमरुतामारम्भदर्शनात् ।" (प्र.सा.र.गा. ४०वृत्तौ) ततः तादृशप्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावस्योद्भूतरूपदहनावयवप्रवेशस्य च कल्पनामपेक्ष्योद्भूतरूपादौ शक्तिविशेषस्य परिणामविशेषापराभिधानस्यैव हेतुत्वौचित्यादिति दिक्शब्दार्थः ।
ननूत्कटत्वं किमिति जिज्ञासायामाह - उत्कटत्वं तादृशबह्ववयवकत्वमिति । प्रकटीभूतरूपाश्रयबह्ववयवकत्वमित्यर्थः। न तु जातिरित्यनन्तरं साङ्कर्यादिति गम्यम् । तदुक्तं सामान्यलक्षणाकाशिकानन्दीकारेण "नीलत्वशुक्लत्वादिना परमाणुनीलशुक्लादिवर्तिना साङ्कर्येणोद्भूतत्वस्य जातित्वाऽयोगः " (सा. ल. का. पृ. १८३) यद्वा साङ्कर्यमें नहीं देखा जाता है। अतः हम यह मानने को भी तैयार हैं कि उस वह्नि में अनुत्कट रूप है, जिसके कारण उसका चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता है।
* अनुत्कटरूप उत्कटरूप का प्रतिबन्धक नहीं है *
स्याद्वादी :- आपकी बात बिल्कुल सही है। अब आगे चलिये, जब कोई मनुष्य तपे हुए तैल को जोर से तपे हुए किसी मिट्टी के बर्तन पर छिंटकता है तब उस तप्त तैल के संसर्ग से उद्भूत रूपवाला वह्नि पैदा होता है यह तो प्रायः सब जनं मानते हैं। अतः आपको भी यह तो मानना ही होगा, क्योंकि जिसका चाक्षुषप्रत्यक्ष हो रहा है उसमें उद्भूत रूप होता है यह तो आपका भी सिद्धांत ही है। अब सोचिये, यदि अवयवगत अनुद्भूत रूप को अवयवी में उत्कटरूप का प्रतिबन्धक मानेंगे तब इसकी उत्पत्ति कैसे होगी? क्योंकि आपके अभिप्राय के अनुसार तो वह्नि के अवयव में अनुत्कट रूप होने से वह्निरूप अवयवी में उत्कट रूप तो प्रतिबद्ध ही होना चाहिए। उसकी उत्पत्ति न होनी चाहिए। मगर सब लोग को जो प्रत्यक्ष होता है, उसका अपलाप करना तो इंद्र के लिए भी नामुमकिन है, फिर आपकी तो बात क्या ? अतः उक्त प्रमाणसिद्ध घटना का समर्थन करने के लिए आपको यह मानना होगा की उत्कटता परिणामविशेष से ही प्रयोज्य है। ऐसा मानने पर हमारे पक्ष में ही आपका प्रवेश हो जायेगा । अतः पूर्व में हमने जो बताया था कि शुक्ल बगुले और घट में शुक्लेतररूप अनुत्कट होने से उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है - वह नितांत सत्य है।
यहाँ तक यह सिद्ध हुआ कि तप्त कपाल में रहे हुए अनुत्कटरूपवाले वह्नि को तप्ततैल का संसर्ग होने पर उसमें विशेषपरिणाम की उत्पत्ति होती है जो कि वह्नि के रूप की उत्कटता का प्रयोजक होता है। अतः तप्त कपाल में विद्यमान वह्नि अवयवों में पूर्व में अनुत्कट रूप रहने पर भी तप्ततैल के संसर्ग से संपादित परिणामविशेष के निमित्त से वह्नि के रूप में उत्कटता आती है। अतः नैयायिकप्रदर्शित प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव उक्त स्थल में व्यभिचारी होने से ग्राह्य नहीं हो सकता है यह फलित हुआ । अतएव शुक्ल घट और बगुले में उत्कट शुक्ल वर्ण की भाँति शुक्ल रूप से भिन्न अनुत्कट रूप की सिद्धि निराबाध होती है। अतः निश्चय से बगुला पाँचरूपवाला होता है फिर भी शास्त्रीय व्यवहार के अनुसार 'शुक्ला बलाका' यह प्रयोग भावसत्य है- यह निश्चित हुआ ।
उत्कटत्व जातिस्वरूप नहीं है अन्यमत *
उत्कटत्वं इति । यहाँ प्रसंग से प्रकरणकार उत्कटत्व के सम्बन्ध में अन्य विद्वानों के अभिप्राय को बताते हैं । उन विद्वानों का यह कहना है कि रूप में उत्कटत्व तादृशबहुअवयवकत्वरूप है। अर्थात् जिन अवयवों में जिस रूप =वर्ण की मात्रा अधिक होगी वैसे अवयवों की प्रचुरता होने पर वह उत्कट कहलाता है। अधिक मात्रा में प्रतिनियत शुक्लादि रूपवाले प्रचुर अवयवों में रहे हुए रूप में रहा हुआ धर्म ही उत्कटता है, जो कि उपाधिरूप है न कि जातिरूप ।