________________
१६६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. ३५
० उपमानचातुर्विध्यविचार ० भावनीया बहुश्रुतैरिति दिग् ।।३४ ।। तदप्येकैकं चतुर्विधमित्याह
आहरणे तद्देसे तद्दोसे तह पुणो उवन्नासे । एक्केक्कं तं चउहा णेयं सुत्ताउ बहुभेयं ।।३५।। उक्तयोः चरितकल्पितयोरुपमानयोर्मध्ये एकैकं चतुर्विधं, क्व विषय इत्याह- उदाहरणे तद्देशे तद्दोषे तथा पुनरुपन्यासे ज्ञेयं = ज्ञातव्यं, किदृशं? बहुभेदं = बहवो भेदा अवान्तरप्रकारा यस्य तत् । तथाहि आहरणं = सम्पूर्ण प्रकृतोपयोगी दृष्टान्तः । स च चतुर्धा कारित्व-सत्त्वाद्यभावप्रतिपादनाभिप्रायेणेत्यर्थः। एतेनाऽसत्याभाषावर्गणाप्रसूतवाक्यस्थानां खरविषाणादिपदानां मृषात्वमेव स्यादित्यपास्तम् वादादौ तत्प्रयोगेऽपि सद्भावानभिप्रायात् सद्भावतात्पर्ये त्वसद्भूतोद्भावनरूपमृषात्वस्येष्टत्वाच्चेतिसूचनार्थं 'परिभावनीये'त्युक्तम्। परसमयाभिधानपराणां निषेधपराणां चासत्यभाषावर्गणाप्रसूतवाक्यस्थानां प्रकृत्यादिपदानां सद्भावानभिप्रायान्न मृषात्वमिति ज्ञायते। एतेनाऽसतोऽभावाश्रयत्वमभावप्रतियोगित्वञ्च भावधर्मरूपं न सम्भवतीति न तन्निषेधो युक्तः। 'शशशृङ्गमस्ति न वे'ति पृच्छतो धर्मिवचनव्याघातेनैव निग्रहात्तत्राऽन्यतराभिधानेनोभयनिषेधेन तूष्णीम्भावेन वा पराजयाभावादिति निरस्तम् यथा परेषां विशिष्टस्याऽतिरिक्तस्याऽसत्त्वेऽपि तत्राभावाश्रयत्वस्याऽभावप्रतियोगित्वस्य वा व्यवहारस्तथाऽस्माकमपि सदुपरागेणाऽसत्यपि विशिष्टे वैज्ञानिकसम्बन्धविशेषरूपतद्व्यवहारोपपत्तेः। 'शशशृङ्गमस्ति न वा?' इति जिज्ञासुप्रश्ने 'शशशृङ्गं नास्ती'त्येवाऽभिधातुं युक्तत्वात्, आनुपूर्वीभेदादुद्देश्यसिद्धेः । इत्थमेव 'पीतः शङ्खो नास्ती'त्यादेरपि प्रामाण्योपपत्तेः । काल्पनिकस्याऽप्यर्थस्य परप्रतिबोधार्थतया कल्पिताहरणादिवद् व्यवहारतः प्रामाण्यात् । इत्थमेव नयार्थरुचिविशेषापादनाय तत्र तत्र नयस्थले दर्शनान्तरीयपक्षग्रहस्य तान्त्रिकैरिष्टत्वादित्यादिसूचनार्थ दिक्पदनिवेशः कृतः।।३४।। __ द्रव्यापाय इति । अत्र स्थानाङ्गवृत्तौ- 'द्रव्यात् द्रव्ये वाऽपायो द्रव्यमेव वा तत्कारणत्वादपायो द्रव्यापायः। एतद्धेयतासाधकं एतत्साधकं वाहरणमपि तथोच्यते। (स्था. अ. ४/उ.३/सू.३३८ वृत्ति) इत्येवमुक्तम्। सारे जहाँ में गधे के सिंग त्रिकाल में अनुपलब्ध हैं। फिर भी वक्ता के तर्क-आपादन आदि अभिप्रेत अर्थ का साधक होने पर वे इष्टार्थसाधक होने से प्रयोजनवाले बनते हैं। अतएव आदरणीय भी होते हैं। आशय यह है कि तुच्छता आदि का बोध कराने का प्रयोजन होने पर बाधितार्थवाले खरविषाणादि शब्द भी आदरणीय होते हैं। बहुश्रुत पुरुषों को इस सम्बन्ध में अधिक विचार करने की विज्ञप्ति कर के इस सम्बन्ध में विवरणकार ने यहाँ पर्दा डाल दिया है। इस विषय में बहुत कुछ विचार हो सकते हैं - इसकी सूचना देने के लिए दिग् शब्द का निर्देश कर के विवरणकार ने इस गाथा के विवरण को समाप्त कर दिया है।।३४।।
३४वीं गाथा में प्रदर्शित चरितोपमान और कल्पितोपमान के चार-चार भेद होते हैं। इन भेदों को ३५वीं गाथा से ग्रन्थकार बता रहे हैं।
गाथार्थ :- एक-एक के चार भेद हैं- (१) आहरण (२) तद्देश (३) तद्दोष तथा (४) पुनरुपन्यास। आगम से इनके अनेक भेद ज्ञातव्य हैं।३५
* प्रत्येक उपमान के चार भेद * विवरणार्थ :- प्रदर्शित चरितोपमान और कल्पितोपमान इन दोनों के चार-चार भेद होते हैं। 'उपमान के चार भेद किस विषय में होते हैं?' इस शंका का समाधान यह है कि उदाहरण विषय में, तद्देश सम्बन्ध में, तद्दोष सम्बन्ध में और पुनरुपन्यास के विषय में दोनों उपमान के चार-चार भेद होते हैं, और उनके उनके अवान्तर प्रकार प्रभेद हैं। यह सिद्धान्त = आगम से ज्ञातव्य है। आशय यह है कि उपमान के मुख्य दो भेद हैं और उन दोनों के चार-चार भेद हैं वैसे उन चार भेदों में से प्रत्येक के भी अनेक प्रभेद हैं और उन प्रभेदों के भी अनेक प्रकार होते हैं। यह बात यहाँ बताये गये चित्र से ज्ञात हो जायेगी। देखिये यह रहा वह चित्र -
१ आहरणे तसे तद्दोसे तथा पुनरुपस्यासे । एकैकं तच्चतुर्धा ज्ञेयं सूत्राद् बहुभेदम् ।।३५।।