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* शशशृङ्गादिवचनविमर्शः * णट्ठाए।। (उत्तरा. नि. श्लो. ३०९)।
एवं च कल्पितोपमानं स्वतो नादरणीयं किन्त्विष्टार्थसाधकतया। अत एवोक्तम् "'अत्थस्स साहणट्ठा इंधणमिव ओदणट्ठाए।। त्ति ( ) चरितोपमानं तु स्वतोऽप्यादरणीयमिति ध्येयम् । अनयैव दिशा प्रयोगेऽपि खरविषाणादिदृष्टान्तसप्रयोजनता यथाकथञ्चित्परित्वरिष्ठाः । न चैवं मृषाभाषान्तरस्याऽपि क्वचिद्भावतः सत्यत्वात् द्रव्यभावभाषायां सत्याभेदत्वप्रसक्तिरिति वाच्यम्, क्वाचित्कत्व-सार्वत्रिकत्वाभ्यामेव विशेषात्, भावविशेषजन्यजनकतानवच्छेदकतया जातिभेदस्वीकाराच्च। गालिप्रदानादितोऽपि शाब्दबोधश्चेत्? आहार्य एव, नो चेत्, दुष्टवक्त्रभिप्रायसूचकत्वेनैव तस्य क्रोधजनकत्वम् दुष्टाभिप्रायप्रयुक्तत्वादेव तस्य क्रोधाद्यसत्यभाषायां समावेशात्। सत्यादित्वं वाचां जनपदसत्याद्यन्यतरत्वेनैव ज्ञेयं द्रव्यभावभाषात्वं च तासां चतुर्विधद्रव्यपरिणतिमाश्रित्य । श्रुतभावभाषात्वञ्च तिसृणां फलीभूतश्रुतोपयोगाऽपेक्षया मिश्रोपयोगाभावेन तृतीयस्या अत्राऽनधिकारात्। चारित्रभावभाषात्वञ्च प्रथमान्तिमयोरेव यत्याचारविहितत्वेन चारित्रोत्कर्षकत्वादिति विभाजकोपाधयः सम्यग्विचारणीया मनीषिभिः । क्वचित् 'खरशृङ्गं नास्ती'त्यादौ खरीयत्वेन श्रृङ्गाभावशाब्दबोधे पदार्थयोः संसर्गाभावनिश्चयोऽनुगुण एव, अन्यथा विशिष्टनिषेधप्रतीतावंशतो भ्रमत्वापत्तेरित्यनुपदमेव स्पष्टीभविष्यति।
एवमिति। कल्पितोपमानस्य मुख्यार्थबाधितत्वेनेति। स्वतो नादरणीयमिति। स्वतो नोच्चारणीयमित्यर्थः। स्वत उच्चारणायोग्यमिति यावत। स्वत उच्चारणं नाम अन्यदीयस्वार्थतात्पर्यकोच्चारणानधीनोच्चारणम, तदयोग्यमिति प्रकृते फलितम्। 'ओदणवाएत्ति। यथेन्धनं न स्वत उपादेयं किन्त्वोदननिष्पत्तये तथा कल्पितोपमानं न स्वत उच्चरणीयं किन्त्वभिप्रेतार्थसाधनायेति भावः। - स्वतोऽप्यादरणीयमिति। मुख्यार्थाबाधितत्वादिति गम्यम् । कल्पितोपमाने केवलं तात्पर्याबाधितत्वं भावसत्यत्वनियामकं चरितोपमाने तु मुख्यार्थाबाधितत्वमपीति विवेकप्रदर्शनार्थं ध्येयमित्युक्तम्। __ अनयैव दिशेति । मुख्यार्थबाधितस्यापीष्टार्थसाधकतयोपादानस्य तात्पर्याबाधेन युक्तत्वमिति रीत्येत्यर्थः। खरविषाणादिदृष्टान्तसप्रयोजनतामुख्यार्थबाधितस्य खरविषाणादिदृष्टान्तस्य सप्रयोजनता, यथाकथञ्चिदिति अर्थक्रियाश्रीभद्रबाहुस्वामीजी ने ही श्रीउत्तराध्ययनसूत्र की नियुक्ति में बताया है कि- पीपल के नये पत्ते और जीर्ण-शीर्ण पत्ते के बीच बातचीत वास्तव में नहीं होती है और भविष्य में कभी होनेवाली भी नहीं है। फिर भी भव्यजीवों के बोध के लिये यह केवल उपमा की गई है। यहाँ 'बोध के लिए' ऐसा जो कहा है उसीसे पता चलता है कि भव्यजीवों को संसार, आयुष्य, धन-दौलत आदि की अनित्यता का बोध कराना ही उस कल्पित उदाहरण का तात्पर्य है, अन्यथा भव्यजीवों को उस काल्पनिक उदाहरण से प्रतिबोध कैसे होगा?
एवं च. इति । इस तरह यहाँ तक के ग्रन्थ से यह सिद्ध हुआ कि- कल्पितोपमान का अर्थ बाधित होने से वह उदाहरण स्वतः आदरणीय नहीं है, किन्तु वक्ता के इष्ट अभिप्रेत अर्थ का साधक होने से वह आदरणीय है। कहा गया है कि जैसे इन्धन का यानी लकडी आदि का ग्रहण चावल पकाने आदि के प्रयोजन से होता है, स्वतः नहीं यानी बिना किसी प्रयोजन के नहीं, ठीक वैसे ही अपने अभिप्रेत अर्थ की सिद्धि के लिए इसका (=कल्पितोपमान का) ग्रहण किया जाता है। मगर चरितोपमान की बात अलग है। वह स्वतः भी यानी बिना प्रयोजन के भी आदरणीय होता है, क्योंकि वह अबाधित अर्थवाला होता है। इस सम्बन्ध में अधिक विचार भी ध्यातव्य है।
* खरविषाण आदि शब्द प्रयोजनवश उपादेय * अनया. इति। जैसे कल्पितोपमान बाधितार्थवाला होता हुआ भी अनित्यता के उपदेश आदि अभिप्रेत अर्थ का साधक होने से आदरणीय है वैसे ही खरविषाण-गधे के सिंग आदि शब्द भी स्वतः आदरणीय नहीं हैं, क्योंकि उनका अर्थ = वाच्यार्थ बाधित हैं।
१ अर्थस्य साधनार्थायेन्धनमिवोदनार्थाय इति ।