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१६४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. ३४
० गदाधरमतगिलनम् ० पर्यवस्यन्न निष्प्रयोजनस्तथोक्तकल्पितो ('चरितो?) पमानप्रयोगोऽपि मुख्यार्थबाधेऽप्याहार्यशाब्दबोधद्वाराऽनित्यताप्रतिपत्तिपर्यवसायितया नाऽनर्थ इति । अत एवोक्तम्- "णवि अत्थि णवि अ होही, उल्लावो किसलयपंडुपत्ताणं उवमा खलु एस कया, भवियजणविबोहचाऽत्र दुस्तरत्वप्रतीतिः। एतेन बाधितार्थकशब्दप्रयोगाच्छाब्दबोधानुत्पादेन निरर्थकत्वापत्त्या सोऽप्रयोगार्ह इत्यपास्तम्।
। द्रष्टान्तमभिधाय दान्तिकाथ योजयति तथेति। अनित्यताप्रतिपत्तिपर्यवसायितयेति। अनित्यताप्रतीतेः प्रयोजनत्वात् तात्पर्यवृत्त्याऽनित्यताप्रतीतिफलकतयेत्यर्थः । नानर्थः = न निष्प्रयोजनत्वम् । सर्वत्र रूपकालङ्कारे आहार्याभेदबोधनद्वारोपमेय उपमानगतोत्कर्षवत्त्वप्रतीतेः प्रयोजनत्वम। अत एव "रूपकालङकारादिगर्भतत्तदवृत्तघटित-स्तुति स्तोत्रादिप्रणयनोद्भूतप्रभूतभक्तिप्राग्भाराद्विपुलनिर्जरालाभो भगवतः स्तुतिकृतामिति" (अध्या.प.श्लो. ५८ वृत्ति) अध्यात्ममतपरीक्षायामुक्तमिति। __ एतेन शाब्दत्वावच्छिन्नं प्रति योग्यताज्ञानत्वेन कारणता इति प्राचीनमतं शाब्दमात्रेऽयोग्यताज्ञानाभावस्य कारणतेति नव्यमतं चाऽपास्ते बोद्धव्ये, 'मुखं चन्द्रः' संसार-समुद्र' इत्यादिरूपकस्थले बाधज्ञाने सति आहार्ययोग्यताज्ञानस्य हेतुत्वानुरोधात्। न चैवं क्वचिदपि तस्य कारणता न स्यादिति शङ्कनीयम्, अनाहार्यशाब्दं प्रति तद्धेतुत्वौचित्यात् न तु शाब्दत्वावच्छिन्नं प्रति। अत एव आहारापो रूपकमिति प्राचामुक्तिः सङ्गच्छते। इत्थमेव "प्रतिमायां भगवदभेदारोपं विना न तावद्वन्दनपूजनादिफलं हेतुसहस्रणाऽपि सम्पद्यते। स च काष्ठपाषाणत्वादिना भेदप्रत्यक्षे सति स्वरसतो नोदयतीत्याहार्य एव सम्पादनीयः" (नयो.श्लो. १०३वृ.) इति नयामृततरङ्गिणीवचनमप्युपपद्यते। एतेन "मुखं चन्द्रः" इत्यादिरूपकस्थले चन्द्रादिपदस्य चन्द्रादिसदृशे लक्षणया चन्दादिसदृ
भेदान्वयबोध एव" (व्युत्पत्तिवाद प्र.का.पृ.७०) इति गदाधरवचनमपि प्रत्याख्यातम्, तथाऽनुभवानुपारुढत्वात् लक्षणाश्रयणस्याऽतिजघन्यत्वात्, उपमारूपकालङ्कारजन्यशाब्दबोधयोरविशेषप्रसङ्गाच्च। __तादृशभाषायाश्च द्रव्यतोऽसत्यत्वेऽपि भावतः सत्यत्वात्, उपमावदस्याऽलङ्कारान्तरोपलक्षकत्वादुपमासत्यायां परिगणनम| न च व्यवहारनयेन दशविधसत्याविभागस्य प्रक्रान्तत्वे कथं भावतः सत्यत्वमित्युच्यमानं चारुतामञ्चेतेति साम्प्रतम्, आर्षपुरुषेच्छाणां बलवत्त्वात्, परममुनीनां पर्यनुयोगाऽनर्हत्वात्, अन्यथा भावसत्याया अपि कथं व्यवहारनयीयभाषाविभागे परिगणनमिति तव कशङका न कृतोऽपि विलीयेत। न चैवमप्यूपमाभाषाया मिश्रभाषात्वापत्तिर्दुर्निवारेति आरेकणीयम, द्रव्याऽपेक्षयैव तन्मिश्रत्वस्य तन्नियामकत्वात, न तु द्रव्यभावापेक्षयेति वक्ष्यतेऽग्रे मा वाक्य का प्रयोजन है जो अबाधित है- वास्तविक है।
* कल्पितोपमान के प्रयोजन-अनित्यता आदि का प्रतिपादन * तथोक्त. इति। रूपक अलंकार की तरह कल्पित उपमान का प्रयोग भी सार्थक है। यद्यपि पीपल के पत्ते एकेन्द्रिय होने से आपस में बात नहीं कर सकते है, क्योंकि उनको जीभ नहीं होती है। अतः पीपल के पत्ते बोलते हैं- ऐसा अनाहार्य ज्ञान नहीं हो सकता है, क्योंकि पीपल के पत्ते में भाषणाभाव का ज्ञान है, फिर भी वैसा आहार्य शाब्दबोध तो निर्बाध रूप से हो सकता है, क्योंकि आहार्यज्ञान इच्छाजन्य होने से बाधबुद्धि से प्रतिबध्य नहीं है। तादृश आहार्य ज्ञान होने से श्रोता को पीपल के पत्ते की तरह फलतः संसार में सर्वत्र अनित्यता की प्रतीति होती है। अतएव कल्पित उपमान का प्रयोग भी सार्थक है, क्योंकि अनित्यता की प्रतीति कराना ही उस कल्पित उपमान का प्रयोजन तात्पर्य है, जो अबाधित है-पारमार्थिक है। शब्द अपने तात्पर्य में ही प्रमाण होता है। जिस शब्द का तात्पर्य अबाधित हो उसको असत्य या निष्प्रयोजन कहना यह एक दुःसाहस ही है- अविवेक का प्रदर्शन ही है। यहाँ यह शंका कि- "इस कल्पित उदाहरण का प्रयोजन अनित्यता की प्रतीति कराने का है, यह आपको कैसे ज्ञान हुआ? क्योंकि उस कल्पित उदाहरण में तो यह बताया हुआ नहीं है" - भी ठीक नहीं है, क्योंकि यह हमारी मनमानी कल्पना नहीं है मगर
१ अत्र मुद्रितप्रतौ कप्रतौ च 'चरितोप' इत्यशुद्धः पाठः ।