Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 194
________________ १६३ * रूपकालङ्कारव्याख्यानम् * 'अप्पाहेति पडतं पंडुयपत्तं किसलयाणं।। (उत्त.नि.श्लो. ३०८) ननु कल्पितं न प्रयोज्यं बाधितार्थत्वादित्यत आह-कल्पितमपि रूपकमिव भावाबाधेन न निरर्थमिति। अयं भावः यथा संसारः समुद्र इति रूपकप्रयोगोऽभेदबाधेऽप्यनाहार्यज्ञान एव बाधधियः प्रतिबन्धकत्वादाहार्यशाब्दबोधद्वारा संसारस्य दुस्तरत्वव्यञ्जकतायां तदभाववत्ताबुद्धेस्तद्वत्ताबुद्धिप्रतिबन्धकत्वेन बाधितार्थकप्रयोगाच्छाब्दबोधानुत्पादेन निरर्थकत्वापत्त्या तदप्रयोगार्हमिति शकते-नन्विति । बाधितार्थकत्वे वाक्प्रयोगानर्हत्वव्याप्तिं निरस्यति-कल्पितमपि, किं पुनः चरितोपमानमित्यपिशब्दार्थः। भावाबाधेन = तात्पर्याबाधेन, अत एव 'जलाहरणाय घटमानय' इत्यत्र तात्पर्यबलेन निश्छिद्रघटानयनं भवति। न चैवं घटतात्पर्येण पटपदप्रयोगेऽपि सत्यत्वं स्यादिति वाच्यम्, सामान्यतः तथाव्यवहारस्याऽप्रसिद्धत्वेन तदनापत्तेः, सङ्केतितं श्रोतारं प्रति तु तत्सत्यत्वस्यानपायात् । इत्थमेव सर्वे शब्दाः सर्वार्थवाचकाः सति तात्पर्ये इति प्रवादस्योपपत्तेरिति। अत एव च कल्पलतायां 'पाण्डुरपत्रकिशलयादिवृत्तान्तार्थानामुपमावचनानां स्वार्थबाधेऽपि तात्पर्ये प्रामाण्यान्न तथात्वमिति (स्या.क.स्त. ११/श्लो. १८ वृत्ति) उक्तम् । तथात्वं = असत्यत्वम् | न निरर्थमिति = न निष्प्रयोजनमित्यर्थः। रूपकप्रयोग इति । उपमानोपमेययोरभेदे साम्यप्रतीतिर्नाम रूपकम। तदुक्तं रसगङ्गाधरे - उपमेयतावच्छेदकपुरस्कारेणोपमेये शब्दान्निश्चीयमानमुपमानतादात्म्यं रूपकम। (र.गं.पू. २९७) सरस्वतीकण्ठाभरणे तु 'यदोपमानशब्दानां गौणवृत्तिव्यपाश्रयात् । उपमेये भवेवृत्तिस्तदा तद्रूपकं विदुः।। (स.कं. ३/२०) इति भोजनोक्तम् । काव्यादर्श तु "उपमैव तिरोभूतभेदा रूपकमुच्यते।। (काव्या. २/३६) इत्युक्तम्। प्रतिबन्धकत्वादिति। तदभाववत्ताबुद्धेरनाहार्यतद्वत्ताबुद्धिप्रतिबन्धकत्वं, न तु सामान्यतः तद्वत्ताबुद्धिप्रतिबन्धकत्वम्। तथा च 'समुद्रप्रतियोगिकभेदवान् संसार' इत्याकारकबुद्ध्या संसारसमुद्रपदार्थाभेदस्य बाधेऽप्याहार्यतादात्म्यबुद्धेः प्रतिबध्यत्वकोट्यनाक्रान्तत्वेन संसारसमुद्राभेदविषयिण्याहार्यशाब्दप्रतीतिर्भवितुमर्हति । आहार्यज्ञानं नाम बाधसमानकालीनेच्छाजन्यज्ञानम्। प्रयोजनं * कल्पित उपमान भी प्रयोगार्ह * शंका :- कल्पित उदाहरण का प्रयोग करना उचित नहीं है, क्योंकि कल्पित उदाहरण का अर्थ बाधित होता है। जिस वाक्य का शक्यार्थ बाधित हो उस वाक्य से शाब्दबोध ही नहीं हो सकता है तब तो वैसा वाक्य उन्मत्तप्रलाप जैसा ही हो जायेगा। अतः कल्पित उदाहरण का प्रयोग नहीं करना चाहिए। पौधे के पत्ते आपसमें बात करते है - वह ज्ञान असंभव है। समाधान :- कल्पितमपि. इति। शास्त्र में जो बात कही गई है उसको भी मानने के लिए आप तैयार नहीं है। ठीक कहा है कि कहे से धोबी गधे पर नहीं चढता। मगर सुनिये, जैसे रूपक अलंकार का विषय बाधित होने पर भी रूपक अलंकार का तात्पर्य अबाधित होने से रूपक अलंकार निरर्थक-निष्प्रयोजन नहीं है, ठीक वैसे ही कल्पित उदाहरण का विषय बाधित होते हुए भी काल्पनिक उपमान का तात्पर्य अबाधित होने से कल्पित उदाहरण भी निष्प्रयोजन नहीं है। आशय यह है कि- 'यह संसार समुद्र है' यह रूपक अलंकार संसार और समुद्र में अभेद का बोध कराता है। यहाँ यह शंका कि- 'संसार और समुद्र में अभेद बाधित है, क्योंकि संसार चतुर्गतिमय है तथा समुद्र पानी का अक्षय भंडार और नदी का स्वामी है। अतः संसार और समुद्र में तादात्म्यज्ञान नहीं हो सकता है, क्योंकि बाधबुद्धि तदभाववत्ता की बुद्धि तद्वत्ता की बुद्धि में प्रतिबन्धक है' - इसलिए निराधार हो जाती है कि बाधबुद्धि तो अनाहार्य बुद्धि में अर्थात् इच्छाजन्यभिन्न ज्ञान में ही प्रतिबन्धक होती है, आहार्य बुद्धि में नहीं। आहार्य बुद्धि का अर्थ है बाधकालीन इच्छाजन्य ज्ञान । शब्दार्थ के बाध का ज्ञान होने पर इच्छा से अजन्य ज्ञान नहीं हो सकता है मगर इच्छाजन्य ज्ञान - हो सकता है। रंक भी अपनी कल्पना = इच्छा से 'मैं राजा हूँ' ऐसा मानता है न? यह कोई राजाज्ञा नहीं है कि बाधकाल में इच्छा से अजन्य ज्ञान की तरह इच्छा से जन्य ज्ञान भी उत्पन्न न हो। अतः संसार में समुद्र के तादात्म्य का अभाव ज्ञात होने पर भी 'संसारः समुद्र' इस वाक्य से श्रोता को संसार में समुद्रतादात्म्य की आहार्य शाब्दी प्रतीति होती है, जिससे श्रोता को फलतः समुद्र की तरह संसार में दुस्तरता की प्रतीति होती है। श्रोता को संसार में समुद्र की तरह दुस्तरता की प्रतीति कराने से हि 'संसारः समुद्रः' यह रूपक अलंकार प्रयोग सफल होता है, क्योंकि संसार तैरना बहुत मुश्किल है- ऐसी श्रोता को प्रतीति कराना ही उस १ कप्रतौ मुद्रितप्रतौ च 'अप्पाहेति' इत्यशुद्धः पाठः।

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