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१७० भाषारहस्यप्रकरणे स्त. १. गा. ३५
● उपायचतुष्कनिरूपणम् O द्रव्योपायो लोके धातुर्वादादिः लोकोत्तरे त्वध्वादौ पटलादिप्रयोगतः प्रासुकोदककरणादिः । क्षेत्रोपायो लौकिको लाङ्गलकुलिकादिः लोकोत्तरस्तु विधिना प्रातरशनाद्यर्थमटनादिना क्षेत्रसञ्चारः । कालोपायो नाडिकादिर्लौकिकः, तस्य तज्ज्ञानोपायत्वेन तथाव्यपदेशात् लोकोत्तरस्तु सूत्रपरावर्तनादिः । भावोपायस्तु देवनिर्मितैकस्तम्भप्रासादोपशोभितसर्वर्तुकारामस्थरसालपादपस्य फलमवनामिन्या विद्यया गुर्विण्या दोहदपूरणार्थं गृहितवतश्चाडालचौरस्याभिप्रायपरिज्ञानार्थमभयस्येवाऽऽख्यायिकाप्रबन्धोपदर्शनादिक इति। इदं च पेयेऽस्तीत्यभिधीयते यथैतेषु द्रव्यादिविशेषेषु साधनीयेष्वस्त्युपायो विवक्षितद्रव्यादिविशेषवत्, उपादेयता वाऽस्य यत्राभिधीयते तदाहरणमुपाय" इत्युक्तम् । धातुर्वादादेरिति । अत्र "धातुर्वादः सुवर्णपातनोत्कर्षलक्षणो द्रव्योपाय" इति हारिभद्रवृत्तौ । अध्वादाविति । दीर्घकालीनाटव्यादौ निर्वाहार्थं तक्रखरण्टितचीवरादिप्रयोगतः प्रासुकोदककरणादिविधिविशेषः प्रकल्पग्रन्थादितो ज्ञेयः । अगस्त्यसिंहसूरिभिस्तु "जहा धातुवातिता उवादेण सुवण्णादि करेंति ता संघादिकज्जे जोणिपाहुडादीहिं दव्वोवाए दरिसेति पड़िणीयपडिघायणत्थं वा " ( दश. अग. चू. पृ. २२) इत्येवं लौकिकद्रव्योपायाहरणमनूद्य लोकोत्तरद्रव्योपायाहरणं प्रदर्शितम् ।
लाङ्गलेति। लाङ्गलकुलिकादितः क्षेत्रमुपक्रम्यतेऽतः क्षेत्रोपायत्वम् । तदुक्तं स्थानाङ्गवृत्ता" क्षेत्रोपायः क्षेत्रपरिकर्मणोपायो यथाऽस्त्यस्य क्षेत्रस्य क्षेत्रीकरणोपायो लाङ्गलादिस्तथाविधसाधुव्यापारो वा तेनैव वा प्रवर्तितव्यमत्र तथाविधान्यक्षेत्रवदिति। प्राचीनतमचूर्णौ तु- "खेत्तोवातो जहा पुव्ववेतालीओ अवरवेताली णावाए गम्मति एवं विज्जादिहि अद्धाणाती आवती नित्थरितव्वा" इत्येवं व्याख्यातम् । क्षेत्रसञ्चारः = क्षेत्रभावनम् । (ग्रन्थाग्रम् - ३५०० श्लोक ) । नाडिकादिरिति । नाडिका = घटिका। आदिशब्दाच्छङ्क्वादिग्रहणम् । तदुक्तं स्थानांगवृत्तौ 'कालोपायः = कालज्ञानोपायः, यथाऽस्ति कालस्य ज्ञाने उपायो धान्यादेरिव जानीहि वा कालं घटिकाच्छायादिनोपायेन तथाभूतगणितज्ञ - वदि'ति। योगशास्त्र-योगबिन्दु-संवेगरंगशालादावनेके मरणकालज्ञानोपाया दर्शिताः प्रकृतेऽनुसन्धेयाः ।
आख्यायिकाप्रबन्धेति । विस्तरतः चूर्ण्यादित इदमुदाहरणं ज्ञेयम् सुप्रसिद्धत्वाद् ग्रन्थगौरवभयाच्च नास्माभिः तत्प्रदर्श्यते। उपनयश्चात्रैवं शैक्षकाणामुपस्थाप्यमानानामुपायेन गीतार्थेन विपरिणामादिना भावो ज्ञातव्यः- किमेते प्रव्राजनीया नवेति ? प्रव्राजितेष्वपि तेषु मुण्डनादिष्वेवमेव विकल्पः प्रकल्पग्रन्थादितो विस्तरतो ज्ञेयः ।
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दीर्घकालीन अटवी आदि में निर्वाह के लिए जो पटलादिप्रयोग से प्रासुक उदक करने की आपवादिक विधि है, वह लोकोत्तर द्रव्योपायउदाहरण है। लांगल यानी हल, कुलिका = खेत में घास काटने का छोटा काष्ठविशेष आदि खेत को योग्य बनाने के उपाय होने से लौकिक क्षेत्रोपाय कहे जाते हैं। तद्विषयक उदाहरण भी क्षेत्रोपाय उदाहरण कहा जाता है । आगमकथित विधि के अनुसार सुबह में भिक्षादि की प्राप्ति के लिए घूम कर क्षेत्र को भावित करना- यह लोकोत्तर क्षेत्रोपाय कहा जाता है। उसका प्रतिपादक उदाहरण भी लोकोत्तर क्षेत्रोपाय उदाहरण कहा जाता है। नाडिका आदि कालज्ञान के लौकिक उपाय हैं। अभी घडी, रेडीयो आदि साधन काल को जानने के लौकिक उपाय हैं। उसका निरूपण जिसमें हो वह लौकिक कालोपाय उदाहरण कहा जाता है। सूत्रपरावर्तन आदि साधन कालज्ञान के लोकोत्तर उपाय है। यानी अमुक प्रमाण में गाथा का परावर्तन आदि होने से अभी अमुक समय होगा - ऐसा कालज्ञान लोकोत्तर साधु को होता है। अतः सूत्रपरावर्त्तनादि लोकोत्तर कालविषयक ज्ञान के उपायभूत है। उसका प्रतिपादक कथानक लोकोत्तर कालोपाय उदाहरण कहा जाता है।
* भावउपाय अभयकुमार मंत्री *
भावउपाय इति । भावउपाय का अर्थ है भावविषयक ज्ञान का उपाय यानी अन्यके मनोगत भावों को जानने का उपाय। इस सम्बन्ध में अभयकुमार का कथानक प्रसिद्ध है। संक्षेप में वह इस तरह है कि- चांडाल चोर की गर्भवती पत्नी को अकाल में आम्रफल खाने का दोहला हुआ, जिसकी पूर्ति के लिए चांडाल चोर ने अवनामिनी विद्या से आम के पेड से, जो कि देवनिर्मित एक स्तंभवाले प्रासाद से सुशोभित एवं सब ऋतु में फल देनेवाले वृक्षों से अलंकृत श्रेणिक महाराज के उद्यान में सुरक्षित रहा हुआ था, आम्रफलों का ग्रहण किया था । आम्रफल के चोर को पकडने के लिए अभयकुमार मंत्री सब लोग को इकट्ठे कर के उन्हे युवानस्त्री,