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१५८ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. १. गा. ३३
अथ योगसत्यामाह
० चिन्तामणिकारमतनिरासः O
'सा होइ जोग़सच्चा उवयारो जत्थ वत्थुजोगम्मि । छत्ताइअभावे वि हु जह छत्ती कुंडली दंडी । । ३३ ।। सा भवति योगसत्या यत्र = यस्यां वस्तुयोगे उपचारः, "अतीतसम्बन्धवल्लाक्षणिकपदघटिता योगसत्येत्यर्थः अन्यथा यत्तु 'उद्भवत्वं जातिरेव नास्तीति केनचिदुक्तं तदसत् एकत्र कोटावनुद्भूतत्वे तद्विरहिणि तद्विरुद्धजातिनियमात् । एतेन यदपि मणिकारेण तत्रैव- "अथवोद्भूतत्वमनुद्भूतत्वं वा न जातिः किन्तु रूपत्वव्याप्यजातिमत्त्वमेवोद्भूतत्वं तदभावोऽनुद्भवत्वं प्रत्यक्षे रूपे शुक्लतरतमत्वादिजातिमत्त्वात्" (तत्त्व. प्रत्य. ख. पृ. ७२५) इतिकल्पान्तरः प्रदर्शितः सोऽपि निरस्तः नानापदार्थघटितसखण्डोपाधित्वकल्पनापेक्षया कारणतावच्छेदकतया लाघवेन जातित्वकल्पनाया एव न्याय्यत्वात्, अन्यथा गन्धसमवायिकारणतावच्छेदकतया पृथ्वीत्वजातिसिद्धिरपि दुर्घटा स्यात् ।
केचित्तु प्रत्यक्षत्वप्रयोजको धर्म उद्भूतत्वमित्याहुः । अपरे तु 'रूपादिविशेषगुणगतो धर्म उद्भूतत्वमिति व्याचक्षते । प्रकटीभूतत्वमुद्भूतत्वमित्यन्ये । मदीयो निर्भर 'उद्भूतत्वं जातिरित्यत्र, जातिसाङ्कर्यस्याऽदोषत्वात् । एतत्प्रकरणकृतोऽप्यभिप्रायेणाऽत्रैव भवितव्यम्। तदुक्तं स्याद्वादरहस्ये - "उपाधिसाङ्कर्यस्येव जातिसाङ्कर्यस्याऽप्यदोषत्वात् ।" (म.स्या.र. श्लो. ७ / वृत्ति) मत्कृतवादरहस्यादिति । एतत्प्रकरणकारकृतो वादरहस्याऽऽख्यो ग्रन्थः साम्प्रतं नोपलभ्यते । । ३२ ।।
व्यवहारनयाभिमतसत्याया नवमभेदं निरूपयितुमुपक्रमते अथ योगसत्यामिति । उद्देशक्रमप्राप्तां व्यवहारनयसम्मतसत्यभाषाया नवमभेदरूपामित्यर्थः । सा होइत्ति । इयं गाथा प्रकरणकारेण विशेषणोपलक्षणप्रकरणे प्रमेयमालास्थसप्तमप्रकरणात्मके उद्धृता वर्तते । अतीतसम्बन्धवल्लाक्षणिकपदघटितेति । अतीतसम्बन्धवति वर्तमानं यल्लाक्षणिकं पदं तेन घटितेत्यर्थः । लक्षणयाऽर्थबोधकं पदं लाक्षणिकमुच्यते । अत्र शुभाशुभसूचकलक्षणप्रतिपादकं लाक्षणिकशब्देन न ग्राह्यम्, अनुपयोगात् । अतीतपदेन वर्तमानादिव्यवच्छेदः कृतः । अन्यथा = प्रदर्शितलक्षणानभ्युपगमे, वर्तमानादिकालीनसंसर्गवल्लाक्षणिकपदघटितभाषात्वस्य योगसत्यालक्षणतयाऽङ्गीकारे इति यावत् ।
से निरूपण हो रहा है।
गाथार्थ :- वह भाषा योगसत्य कही जाती है जिस भाषा में वस्तु का योग होने पर उपचार होता है जैसे कि छत्र आदि के अभाव में भी यह छत्री है, यह कुंडली है, यह दंडी है- इत्यादि भाषा । ३३ ।
* योगसत्य भाषा-९ *
विवरणार्थ :- किसी व्यक्ति में किसी चीज का योग होने पर जो शब्द उस व्यक्ति में उपचार से प्रवर्तमान होता है उस पद से घटित भाषा योगसत्य भाषा कही जाती है। यह उदाहरण से स्पष्ट हो जायेगा। जैसे कि चैत्र में दंड का योग होने पर चैत्र दंडी कहा जाता है। चैत्र में दंड का योग होने से उस शब्द = पद का उपचार दंडसंसर्ग के आश्रयभूत चैत्र में किया जाता है। इस तरह योग = सम्बन्ध की अपेक्षा से इस भाषा में सत्यता है - यह सिद्ध हुआ ।
अती. इति । विवरणकार स्पष्टरूप से योगसत्य भाषा के लक्षण को बताते हुए कहते हैं कि जिस वस्तु में अतीत काल में अन्य किसी वस्तु का सम्बन्ध हुआ है, उसमें जो पद लक्षणा से प्रवृत्त होता है उस पद से घटित भाषा योगसत्य भाषा है। यदि यहाँ अतीतकालीन संसर्ग ऐसा न कहा जाए और वर्तमानकालीन सम्बन्ध का निवेश किया जाय तब तो वर्तमानकाल में छत्रादि न होने पर उस चैत्रादि व्यक्ति में 'यह दंडी है' इत्यादि उपचार भी असंभव हो जायेगा, क्योंकि सम्बन्ध तो उभयात्मक है। आशय यह है कि चैत्रादि और छत्रादि का सम्बन्ध उन दोनों से सर्वथा अतिरिक्त न हो कर चैत्रादि और छत्रादि स्वरूप ही होता है। यदि छत्रादि-विशेषण न होगा या चैत्रादि= विशेष्य न होगा या दोनों न होंगे तब उभयात्मक सम्बन्ध भी नहीं रहेगा। छत्रादि के अभाव काल में उपचार का निमित्तभूत उभयात्मक सम्बन्ध ही नहीं है, तब चैत्रादि में उपचार कैसे होगा ? अर्थात् कथमपि न होगा। मगर
१ सा भवति योगसत्योपचारो यत्र वस्तुयोगे । छत्राद्यभावेऽपि यथा छत्री कुंडली दंडी ।। ३३ ।।