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१५४ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. १. गा. ३२ ● उत्कटत्वस्य परिणामविशेषप्रयोज्यत्वप्रतिपादनम् O स्याऽवयविन्युत्कटरूपप्रतिबन्धकत्वादुक्तानुपपत्तिः अन्यथा पिशाचेऽप्युत्कटरूपप्रसङ्गादिति वाच्यम् उत्कटत्वस्य परिणामविशेषयोग्यत्वं चोत्कटरूपत्वेन । तच्चोत्कटशुक्लरूपे घटे वर्तमानेषु नीलादिरूपान्तरेषु नास्ति तेषामनुत्कटत्वात्। अतो न शुक्लघटे नीलादिरूपान्तरप्रत्यक्षत्वापत्तिः । न केवलमस्माकमुत्कटरूपत्वेन प्रत्यक्षयोग्यत्वमपि तु नैयायिकानामपि तत्सम्मतमित्याह परेणेति नैयायिकेनेति । उद्भूतरूपस्यैव तथात्वोपगमादिति प्रत्यक्षयोग्यत्वोपगमात्, एवकारेणानुद्भूतरूपस्य व्यवच्छेदः कृतः । नैयायिकः पुनः प्रत्यवतिष्ठते अवयवगतानुत्कटरूपस्याऽवयविन्युत्कटरूपप्रतिबन्धकत्वादिति। समवायेनोत्कटरूपं प्रति स्वसमवायिसमवेत्वसम्बन्धेनानुत्कटरूपत्वेन प्रतिबन्धकत्वमिति फलितम् । ततश्च यदि घटावयवेष्वनुत्कटनीलादिरूपं स्यात् तर्हि घटेऽवयविन्युत्कटरूपं न स्यात्, तस्य प्रतिबध्यत्वात् । अतो घटे शुक्लरूपमपि नीलादिकमिवानुत्कटं स्यात् । तथा च सति घटाप्रत्यक्षत्वापत्तिरिति वृद्धिमिच्छतो मूलक्षतिरायातेत्याशयेन नैयायिक आह-उक्तानुपपत्तिः । शुक्लघटेऽवयवगतानुत्कटनीलादिरूपजन्यानुत्कटनीलादिरूपमित्यस्यानुपपत्तिः। विपक्षे बाधमाह - अन्यथेति तादृशप्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभावानभ्युपगमे । पिशाचावयवेष्वनुत्कटरूपसत्त्वेऽपि पिशाचे उत्कटरूपोत्पत्तिस्स्यात्, अनुत्कटरूपापेक्षयोत्कटरूपोत्पादाभ्युपगमे कार्यतावच्छेदकलाघवात् । तथा च पिशाचप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गः। तस्मादुक्तप्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभावः स्याद्वादिनाऽभ्युपगन्तव्य एव । तादृशप्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभावस्वीकारे च पिशाचावयवेष्वनुत्कटरूपसत्त्वान्न पिशाच उत्कटरूपम्, तस्य प्रतिबध्यत्वात् । तथा च शुक्लघटे शुक्लरूपस्य प्रत्यक्षत्वेन शुक्लघटावयेवष्वनुत्कटनीलाद्यभावोऽनुमीयते । ततश्चोत्कटशुक्लरूपे घटे नानुत्कटनीलादेस्सत्त्वम्। अतः स्याद्वादिन एकत्र पञ्चवर्णात्मकत्वाभ्युपगमो न युक्त इति नैयायिकाशयः ।
यद्यपि परमतानुसारेणानुत्कटत्वस्य जातित्वात्तदभावात्मकस्योत्कटत्वस्य गुरुत्वेन नोत्कटरूपोत्पाद इति शक्यते समाधातुं तथापि स्फुटत्वात्तदुपेक्ष्य प्रकारान्तरेण तन्निराकरोति उत्कटत्वस्येति । अयं भावः परिणामविशेषेणैवोत्करूप अनुत्कट होने से उनका प्रत्यक्ष नहीं होता है। वही रूप प्रत्यक्ष का विषय होता है जो उत्कट होता है, क्योंकि उत्कटत्वरूप से ही रूप=वर्ण प्रत्यक्षयोग्य होता है। उत्कटत्व न होने से वे शुक्लेतर रूप प्रत्यक्ष के अयोग्य होते हैं। प्रत्यक्ष में योग्य विषय कारण होने से शुक्ल घट के अनुत्कट शुक्लेतर रूप, जो कि प्रत्यक्ष के अयोग्य हैं, प्रत्यक्ष नहीं होते हैं। प्रत्यक्ष की सामग्री न होने पर प्रत्यक्ष कैसे होगा? जो रूप उत्कट होता है वही प्रत्यक्षयोग्य होता है- यह सिर्फ हमारा ही सिद्धांत नहीं है मगर नैयायिक को भी यह मान्य है अन्यथा नैयायिक के सिर पर पिशाच के प्रत्यक्ष की आपत्ति आयेगी।
* अवयवगत अनुत्कट रूप अवयवी में उत्कट रूप का प्रतिबंधक है नैयायिक *
नैयायिक :- न चावयवगत. इति। आप यदि हमारे सिद्धांत से बातचीत कर रहे हैं तब हमारे दूसरे सिद्धांत को भी कान खोल कर सुनिये। हमारा सिद्धांत यह है कि- अवयवगत अनुत्कट रूप अवयवी में उत्कट रूप का प्रतिबन्धक होता है। अतः शुक्ल घट के अवयव में आप अनुत्कट शुक्लेतर रूप को मानते हैं वह ठीक नहीं है, क्योंकि शुक्ल घट के अवयव में अनुत्कट शुक्लेतर रूप रह्नने पर घटात्मक अवयवी में उत्कटरूप की उत्पत्ति ही न हो सकेगी क्योंकि अवयवगत अनुत्कटरूप अवयवी में उत्कटरूप का प्रतिबन्धक है। जब घट में उद्भूतरूप की ही उत्पत्ति न होगी तब उत्कट शुक्ल रूप की कल्पना तो कैसे हो सकती है? फलतः
घट
उद्भूत रूप की उत्पत्ति न होने से हम दोनों के सिद्धान्त के अनुसार घट का प्रत्यक्ष ही नहीं होगा। तब तो कुम्हार बेकार हो जायेगा, क्योंकि ग्राहक को अनुद्भूत रूपवाले घट का प्रत्यक्ष न होने से वह उसे खरीदेगा कैसे ?
अन्यथा इति । यहाँ यह शंका कि- 'आपने जो प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव बताया है उसमें प्रमाण क्या है? उसके अस्वीकार में बाधक क्या है? जिसकी वजह उसका स्वीकार किया जाए?'- इसलिए निराधार हो जाती है कि उक्त प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव के अस्वीकार में पिशाच के अवयव में अनुत्कट रूप होते हुए भी पिशाच में उद्भूत रूप की उत्पत्ति होने लगेगी, क्योंकि आप अवयवगत अनुत्कट रूप को अवयवी में उत्कट रूप का प्रतिबन्धक नहीं मानते हैं । अनुत्कट रूप की उत्पत्ति की अपेक्षा से उत्कट रूप की उत्पत्ति की कल्पना में कार्यतावच्छेदकधर्म उत्कटत्व होता है जो अनुत्कटत्व की अपेक्षा से लघु है । फलतः पिशाच के प्रत्यक्ष की आपत्ति होने लगेगी। तब तो इस दुनिया में रहना ही मुश्किल हो जायेगा ।