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१५२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. ३२
० मुक्तावलीदिनकरीयसमालोचना ० अवयवगतशुक्लेतरस्य च न शुक्लप्रतिबन्धकत्वम् मानाभावात्। न च चित्ररूपान्यथानुपपत्तिर्मानम्, नीलपीतादिरूपसमुदायेनैव चित्रव्यवहारोपपत्तावतिरिक्तचित्रे मानाभावादित्यधिक मत्कृतवादमालायाम्। तत्वेन निषिद्धत्वादित्यर्थः। किञ्च नियतारम्भाभ्युपगमे नानाजातीयरूपवदवयवारब्धेऽवयविनि चित्ररूपोत्पत्तिः कथं भवेत्? तस्य कारणगुणाऽसमानजातीयत्वादिति स्ववधाय कृत्योत्थापनमेतदिति न किञ्चिदेतत्। पूर्वोक्तप्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावकल्पकस्याऽतिरिक्तचित्ररूपस्याऽप्रामाणिकत्वेन स्वीकर्तुमनर्हत्वात् चित्रव्यवहारस्य नीलपीतादिरूपसमुदायेनैवोपपत्तेः। एतेन यदुक्तं युक्त्या यन्न घटामुपैति तदहं दृष्ट्वाऽपि न श्रद्दधे तन्निरस्तम् नानारूपसमुदायेन चित्रव्यवहारस्य प्रत्यक्षादिभिः सिद्धत्वात्। स्वानुभूत्यनाश्वासे सर्वत्रानाश्वासप्रसङ्गात् । तदुक्तं पञ्चदश्याम्-'स्वानुभूतावविश्वासे तर्कस्याऽप्यनवस्थितेः । कथं वा तार्किकंमन्यः तत्त्वनिश्चयमाप्नुयात्।।' (प.द.३/२९) इति। न चानेकेषु 'चित्रमिति प्रतीतिविषयतायाः कल्पनागौरवं दोषावहम्, अतिरिक्तधर्मिकल्पनाऽपेक्षया क्लृप्तेषु विषयत्वरूपधर्मकल्पनागौरवस्य न्याय्यत्वात् । एतेन मुक्तावलीदिनकरीये "चित्रमिति प्रतीतिविषयताया अनेकत्र कल्पने गौरवमेकत्र कल्पने लाघवमिति लाघवानुरोधेनातिरिक्तचित्ररूपसिद्धौ पूर्वोक्तप्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावकल्पनागौरवस्य न दोषत्वं फलमुखत्वादि"त्युक्तं तन्निरस्तम् अस्यां कल्पनायां चित्ररूपप्रागभाव-ध्वंसादिगुरुतरं कल्पनीयमिति प्रागेवोपस्थितौ तद्दोषताया बाहुलेयत्वात् फलमुखकल्पनागौरवस्याऽदोषत्वे गौरवस्य प्रागनुपस्थितेरेव बीजत्वात्। अपि चैवं सति दिनकरभट्टानभिमतस्य चित्ररसस्यापि सिद्धिः प्रसज्येत। के लिए नियत कारण का उपादान होता है। इसीसे सिद्ध होता है कि कार्य-कारण में नैयत्य होता है। इसी सबब शुक्ल रूप के आरंभक परमाणु शुक्लेतर रूप के आरंभक नहीं होते हैं-यह सिद्ध हुआ। अतः आपने जो बताया था कि शुक्लघट के आरंभक परमाणु ही कालान्तर में नीलादिघट के आरंभक होते हैं-वह बाधित होता है।
*नियतारंभवाद अप्रामाणिक * समाधान :- नियता. इति। आपके इस वक्तव्य का आधारस्तंभ नियतारम्भवाद है, मगर नियत आरम्भवाद ही अप्रामाणिक है। नियत आरम्भवाद का अन्यत्र विस्तार से निरास किया हुआ है। अतः विवरणकार उसका यहाँ निरूपण नहीं करते हैं। व्यवहार में भी देखा जाता है कि कारण से सजातीय कार्य की ही उत्पत्ति नहीं होती है किन्तु विजातीय कार्य की भी उत्पत्ति होती है। जैसे कि एक ही गोबर में से भ्रमर, बिच्छू, कीडे आदि अनेक जीवों की उत्पत्ति होती है। एक ही बादाम के पेड पर कुछ बादाम मीठे पैदा होते हैं और कुछ बादाम कटु भी। अतः नियत आरंभवाद अप्रामाणिक है। अतः शुक्ल रूप के आरम्भक ही कालान्तर में शुक्लेतर रूप के आरंभक हो सकते हैं। इसमें कोई बाधक नहीं है। अतः पूर्व में जो हमने कहा है कि - 'शुक्लघट के आरंभक परमाणु ही अन्य काल में नील रूपवाले घट के आरंभक होने से अवश्य एक ही धर्मी में पाँच रूप की सिद्धि होती है' - वह निर्दोष है। दूसरी बात यह है कि आपने पूर्व में जो बताया था कि अवयवगत शुक्लेतररूप अवयवी में शुक्ल रूप की उत्पत्ति का प्रतिबन्धक होता है- वह भी अप्रामाणिक होने से हमें मान्य नहीं है।
शंका :- चित्ररूप. इति। जनाब, कमाल है! हमने पूर्व में ही बता दिया था कि- चित्ररूप की अन्यथा अनुपपत्ति ही तादृश प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव में प्रमाण हैं, क्योंकि तादृश प्रतिबध्य-प्रतिबन्धभाव के अस्वीकार में अवयवी में अनेक रूप की उत्पति होने से एक अतिरिक्त चित्ररूप की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। लगता है कि आपको स्मरणशक्ति के लिए ब्राह्मी तैल की आवश्यकता है।
* अतिरिक्त चित्ररूप अप्रामाणिक - स्याद्वादी * समाधान :- आपने जो पहले बताया था वह हमें ठीक तरह याद हैं, मगर आपका वह कथन भी अप्रामाणिक होने से मान्य नहीं है, क्योंकि आपका मनोवांछित पाँच रूप से अतिरिक्त चित्ररूप विद्यमान नहीं है। यहाँ यह शंका कि-"यदि चित्ररूप नहीं है तो फिर चित्ररूप का व्यवहार क्यों होता है? चित्ररूप का व्यवहार होता है इसीसे चित्ररूप की सिद्धि होती है" - करना ठीक नहीं है, क्योंकि चित्ररूप का व्यवहार तो नील-पीत आदि रूपों के समुदाय से ही उपपन्न हो सकता है। चित्ररूप के व्यवहार के लिए स्वतंत्र चित्ररूप की आवश्यकता नहीं है। अतः चित्ररूप के व्यवहार से चित्ररूप की सिद्धि नहीं हो सकती है। इस विषय का