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१५० भाषारहस्यप्रकरणे स्त. १. गा. ३२
० चित्ररूपमीमांसा 0
अथ बलाकायाः पञ्चवर्णत्वं न युक्तिमत् शुक्लेतररूपस्य शुक्लरूपप्रतिबन्धकत्वात् अन्यथा चित्ररूपोच्छेदात्, शुक्लादौ नीलादिसत्त्वे तत्प्रत्यक्षप्रसङ्गाच्चेति चेत् ? न शुक्लघटारम्भकपरमाणूनामेव कालान्तरे नीलघटाद्यारम्भकत्वेन (ग्रन्थाग्रं-४०० लब्धावसरो नैयायिकः प्रत्यवतिष्ठते - अथेति । शुक्लरूपप्रतिबन्धकत्वादिति । तन्मते समवायेन शुक्लं प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन शुक्लेतररूपत्वेन पीतरूपं प्रति पीतेतररूपत्वेन प्रतिबन्धकत्वमिति रीत्या प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावः । विपक्षे बाधमाह - अन्यथेति । तादृशप्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावाऽस्वीकारे, चित्ररूपोच्छेदात्-नानाजातीयरूपवदवयवारब्धेऽवयविनि नानारूपोत्पादेनाऽतिरिक्तचित्ररूपोच्छेदप्रसङ्गात् । न चेष्टापत्तिरिति वाच्यम् तादृशप्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावाऽस्वीकारे शुक्लादीनां व्याप्यवृत्तित्वेन नानाजातीयरूपवदवयवारब्धेऽवयविनि शुक्लावयवावच्छेदेन नीलाद्युत्पादस्य दुर्वारत्वात् । यदि च परस्तमप्यभ्युपगच्छेत्तदाऽऽह शुक्लादाविति । शुक्लावयवावच्छेदेन नीलरूपसत्त्वे तदवच्छेदेन नीलरूपस्य प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात् चाक्षुषसामग्रीसत्त्वात् । एवं नीलावयवावच्छेदेन शुक्लरूपसत्त्वे तद* एक धर्मी में अनेक रूप नहीं हो सकते हैं- नैयायिक *
नैयायिक :- प्रथम उदाहरण तो ठीक है कि वह भावसत्य वचन है मगर आपने जो द्वितीय उदाहरण में बताया कि - "बगुले में पाँचों वर्ण होते हुए भी शुक्लरूप की उत्कटता की विवक्षा से 'बगुला सफेद है" यह प्रयोग भावसत्य है।" वह ठीक नहीं है, क्योंकि बगुले में पाँच वर्ण होते ही नहीं हैं। बगुले में सिर्फ एक ही रूप होता है। इसका कारण यह है कि अवयव में यदि शुक्लरूप से इतर रूप हो तब अवयवी = कार्य में शुक्लरूप की उत्पत्ति नहीं हो सकती है, क्योंकि शुक्लेतररूप शुक्लरूप की उत्पत्ति का प्रतिबन्धक होता है। जब प्रतिबन्धक विद्यमान हो तब कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। अतः यदि आप बगुले के अवयव में शुक्लरूप से भिन्न रूप मानेंगे तब तो बगुलेरूप अवयवी में शुक्लरूप की उत्पत्ति ही हो न सकेगी। मगर प्रत्यक्ष प्रमाण से तो यह ज्ञात होता ही है कि बगुले में श्वेतवर्ण होता है। अतः बगुले के अवयव में पाँच वर्ण नहीं होते हैं यह सिद्ध होता है। जब अवयव में ही पाँच रूप नहीं है तब अवयवी में पाँच रूप की सिद्धि कैसे होगी ? अतः बगुले में पाँच वर्ण की कल्पना समीचीन नहीं है।
शंका :- आपने जो प्रतिबध्य - प्रतिबंधकभाव बताया कि अवयवगत शुक्लेतररूप अवयवी में शुक्लरूप की उत्पत्ति का प्रतिबंधक है और शुक्लरूप प्रतिबध्य है - इसका यदि स्वीकार न किया जाए तो क्या दोष है? मतलब कि अवयव में शुक्लेतर रूप भी हो और अवयवी में शुक्लरूप की उत्पत्ति भी हो ऐसा मानने में क्या दोष है ? जिसके बल पर बगुले में पाँच वर्णों की सिद्धि न हो ।
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* शुक्लेतररूप को शुक्लरूप का प्रतिबन्धक न मानने पर आपत्ति *
समाधान :- अन्यथा. इति । यदि उक्त प्रतिबध्य - प्रतिबन्धक भाव का स्वीकार न किया जाए तब चित्ररूप का उच्छेद हो जायेगा यही सब से बड़ा दोष है। आशय यह है कि यदि अवयव में अनेक रूप होने पर अवयवी में अनेकरूप की उत्पत्ति की कल्पना की जाए तब नील - शुक्ल-पीत आदि रूप से अतिरिक्त चित्रनामक रूप की उत्पत्ति न हो सकेगी, क्योंकि नीलादिरूप के होते हुए अतिरिक्त चित्ररूप उत्पन्न नहीं हो सकता है। मगर 'इदं चित्रं' यह प्रतीति तो सब लोग को होती है। अतः चित्रनामक एक अतिरिक्तरूप यानी शुक्लादि पाँच रूप से भिन्न चित्ररूप की सिद्धि होती है। मगर अवयवगत शुक्लेतर रूप को अवयवी में शुक्लरूप का प्रतिबन्धक न माना जाए तब तो अवयवी में चित्ररूप की उत्पत्ति ही न हो सकेगी। अतः उक्त प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव मानना आवश्यक है। यदि तादृश प्रतिबध्य- प्रतिबन्धकभाव का अंगीकार किया जाए तब चित्ररूप की उत्पत्ति हो सकती है, क्योंकि अमुक अवयव में शुक्लरूप, अमुक अवयव में नीलरूप, अमुक अवयंव में पीतरूप आदि होने पर अवयवी में नीलादिरूप की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। अमुक अवयव में शुक्लरूप होने से अवयवी में नीलादिरूप की उत्पत्ति नहीं हो सकती है तथा अवयव में नील रूप होने से अवयवी में शुक्लादिरूप की उत्पत्ति नहीं हो सकती। मगर अवयवी पृथ्वी आदि कार्यद्रव्य रूपशून्य तो नहीं होते हैं । अतः पारिशेषन्याय से एक अतिरिक्त नीलादिरूप से विलक्षण चित्ररूप की उत्पत्ति अवयवी कार्यद्रव्य में होती है यह सिद्ध होता है। इस तरह अनुभवसिद्ध चित्ररूप की उत्पत्ति को संगत करने के लिए तादृशप्रतिबध्य - प्रतिबन्धकभाव का स्वीकार करना आवश्यक है।
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* चित्ररूप के अस्वीकार में नीलावच्छेदेन पीतरूपप्रत्यक्षता की आपत्ति *
शुक्लादौ. इति। इसके अतिरिक्त दोष यह है कि यदि तादृशप्रतिबध्य - प्रतिबन्धकभाव का स्वीकार न किया जाय तब तो नील