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* चूर्णिकारवचनविरोधपरिहारः *
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अथ द्वितीयमेवोदाहरणमन्यत्र प्रकृते प्रदर्शितमिति प्रथमोदाहरणप्रदर्शनं स्वच्छन्दमतिविकल्पितमिति चेत् ? न, ""भावसच्चं णाम महिप्पायतो, जहा घडामाणेहित्ति अभिप्पायतो घडमाणेहित्ति भाणियं गावी अभिप्पायेण गावी, अस्सो वा अस्सो भणिओ एवमादि त्ति।" (दश. अ. ७ जि. चू. पृ. २३६) चूर्णिकारवचनात् ।
अन्यत्रेति। ं प्रज्ञापना-दशवैकालिक स्थानांगादिवृतौ । प्रकृते= भावसत्यास्थले, चूर्णिकारवचनात् = दशवैकालिकचूर्णिकारजिनदासगणिमहत्तरवचनमाश्रित्य । वक्तुर्मनसि यदभिप्रायस्तदनुसारितया भाषणे भावसत्यत्वम् अभिप्रायान्तरसत्वेऽभिप्रायान्तरेण भाषणे न भावसत्यत्वं यथा घटाभिप्रायेण पटपदप्रयोगे, भावस्य = अभिप्रायस्य भेदेनाऽभिप्रायानुसारित्वाभावादिति चूर्णिकृद्वचनपर्यालोचनया ज्ञायते । ततश्च पारमार्थिककुम्भबोधनाभिप्रायेण कुम्भपदभाषणस्य भावसत्यत्वं सिद्धम्। अत्र 'पारमार्थिकः कुम्भ' इति प्रथमोदाहरणे पारमार्थिकपदं कुंभसत्ताबोधनार्थं न तूदाहरणेऽपि तत्प्रयोग इष्टः । ततश्च भूतलादौ कुम्भसत्त्वदशायां कुम्भस्य पारमार्थिकत्वेन तदा तद्द्बोधनाभिप्रायेण-'घटोऽयमि 'ति वचनं भावसत्यं तथैव शब्दप्रयोगादिति मे आभाति । अगस्त्यसिंहसूरिकृतचूर्णौ तु "जधाभिप्पायवदणंतरालावो घटविवक्खया पडाभिधानं भावो तहावत्थित इति भावसच्चं " ( दश. वै.अ. चू. पृ. १६० ) इत्युक्तम् । अत्र यथाभिप्रायवचनान्तरालाप इति अभिप्रायानुसारि यद् वचनं तद् यथाभिप्रायवचनम् ततोऽन्यद्वचनं "पट" इति । सत्यत्वे हेतुस्तत्रभावो तहावत्थित इति । अयं भावः घटबोधजननाभिप्राये सत्यपि करणाऽपटुताऽनाभोगादिना पटपदप्रयोगे जाते शाब्दव्यवहारापेक्षयाऽसत्यत्वेऽपि वक्तुरभिप्रायस्य यथावस्थितार्थप्रतिपादनपरत्वाद् भावतः सत्यत्वस्याऽक्षतत्वाद् भावसत्यमेव तादृशवचनमिति अगस्त्यसिंहसूरिवचनपर्यालोचनया ज्ञायते।
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ननु तर्हि (ग्रन्थाग्रं - ३००० श्लोका) जिनदासगणिवचनविरोधो मैवम्, तद्वचनस्याऽभिप्रायान्तरसत्त्वे मायादिनाऽन्यशब्दभाषणे भावसत्यत्वातिव्याप्तिवारणार्थं तात्पर्य-शाब्दव्यवहारोभयनिवेशपरत्वेन समाधातुं शक्यत्वात् । अगस्त्यसिंहसूरिमते तु तदा तात्पर्यस्य यथावस्थितार्थप्रतिपादनपरत्वादेव नातिव्याप्तिरिति सर्वं सुस्थमिति मदभिप्रायः । तत्त्वं तु बहुश्रुता विदन्ति ।
क्योंकि दशवैकालिक की टीका, प्रज्ञापना की टीका, स्थानांग की टीका आदि तो भावसत्यभाषा के निरूपण में सिर्फ द्वितीय उदाहरण यानी 'बगुला श्वेत है' यह वाक्य ही बताया है। आपने जो प्रथम उदाहरण बताया है वह तो आगम आदि में दृष्टिगोचर नहीं होता है। अतः आपने जो प्रथम उदाहरण बताया है वह आप की स्वच्छन्दमति का प्रदर्शन कराता है। आपने यह उदाहरण शास्त्रनिरपेक्ष अपनी बुद्धि से कल्पना कर के बताया है, वह ठीक नहीं है।
* व्यवहारसत्य भाषा लौकिकविवक्षाघटित है, शास्त्रीयविवक्षाघटित नहीं है *
समाधान :- 'न' इति | आप की कूप मंडूक जैसी बुद्धि को देखकर हमें अफसोस होता है। आपने सिर्फ एक या दो आगम या उनकी टीकाएँ पढ ली और इसीसे आपने यह निर्णय दे दिया कि प्रथम उदाहरण का प्रदर्शन स्वमति कल्पित है - मगर यह ठीक नहीं है। देखिये यह रहा वह दशवैकालिकचूर्णि का पाठ । उसका अर्थ यह है कि "भावसत्य का मतलब है अभिप्राय का आश्रयण कर के सत्य । जैसे कि- 'तुम घट ले आओ' इस अभिप्राय से जब वक्ता - 'तुम घट 'आओ' ऐसा बोलता है वह भावसत्य है। इसी तरह गाय के अभिप्राय से गाय शब्द का उच्चारण और अश्व को अश्व कहना ये सब भावसत्य भाषा के द्रष्टांत हैं।" - चूर्णिकार के उपर्युक्त वचन से यह ज्ञात होता है कि सत्य-पारमार्थिक वस्तु का बोध कराने के अभिप्राय से जब वक्ता वैसा शब्दप्रयोग करता है तब वह शब्दोच्चारण भावसत्य भाषा है। इसी सबब पारमार्थिक कुंभ का बोध कराने के अभिप्राय से यानी जब घट उपस्थित हो तब उस का बोध कराने के अभिप्राय से घट शब्दोच्चारण किया जाता है वह भावसत्य भाषा है। अतः प्रथम उदाहरण को प्रस्तुत करना हमारी मनमानी कल्पना नहीं है, मगर शास्त्रसापेक्ष बुद्धि की एक विशद प्रतिभा है। अतः द्वितीय उदाहरण की तरह प्रथम उदाहरण भी भावसत्याभाषा में ही अंतर्भूत होता है यह सिद्ध हुआ ।
१ भावसत्यं नाम यदभिप्रायतो यथा घटमानयेत्यभिप्रायतो 'घटमानय' इति भणितं गौरित्यभिप्रायेण गौः, अश्वो वाऽश्वो भणित एवमादीति ।