________________
* अभिप्रायनिष्ठसत्त्वद्वैविध्यनिरूपणम * मिति दिग्।।३१।।
उक्ता व्यवहारसत्या ७। अथ भावसत्यामाह'सा होइ भावसच्चा जा सदभिप्पायपुवमेवुत्ता। जह परमत्थो कुंभो सिया बलाया य एसत्ति ।।३२ ।।
सा भवति भावसत्या या सदभिप्रायपूर्वमेवोक्ता। अभिप्रायस्य सत्त्वं च पारमार्थिकभावविषयत्वेन शास्त्रीयव्यवहारनियन्त्रितत्वेन च । अत एवोदाहरणद्वैविध्यमाह, यथा परमार्थः कुम्भः, सिता बलाका चैषेति।
अत्र प्रथममुदाहरणं पारमार्थिककुम्भबोधनाभिप्रायेण कुम्भपदप्रयोगात्सत्यत्वोपदर्शनार्थम् द्वितीयं च सत्यपि बलाकायां ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा! पुढवी त्ति इत्थिवऊ, आऊत्ति पुमवऊ, धण्णित्ति नपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसत्ति (प्र.भा.प.सू.१६४) इति प्रज्ञापनावचनमपि सङ्गच्छत इत्यादि प्रदर्शनार्थं दिक्शब्दप्रयोग इति ध्येयम् ।। ३१।।
भावसत्येति । भावतः सत्या भावमाश्रित्य सत्येति यावत्! लक्ष्यनिर्देशोऽयम् । चतुविर्धसत्यनिरुपणप्रस्तावे 'भावसत्यं तु यत्स्वपरानुपरोधेनोपयुक्तस्ये'ति (स्था.४/२/३०८) अभयदेवसूरिभिरात्मलक्षितनिश्चयनयोपगृहीतव्यवहारनयानुरोधादुक्तम्। तच्चाऽत्रे नाधिकृतमित्यतो वस्तुलक्षितनिश्चयनयतदुपगृहीतव्यवहारनयानुरोधेन तल्लक्षणं प्रदर्शयलिसदभिप्रायपूर्वमेवोक्तेति। एवकारोऽन्ययोगव्यवच्छेदार्थः। ततः सदभिप्रायमात्रप्रयुक्ता भाषेत्यर्थः। 'सदभिप्राये'त्यत्राभिप्राये सत्त्वं केन रूपेण ग्राह्यं तत्प्रदर्शयतिअभिप्रायस्य सत्त्वं चेति । पारमार्थिकभावविषयत्वेनेति। अनेन काल्पनिकभावविषयकत्वनिषेधः कृतः। शास्त्रीयव्यवहारनियन्त्रितत्वेन चेति। चकारो वाकारार्थे तथा च पारमार्थिकभावशास्त्रीयव्यवहारविषयाऽन्यतरविषयकबोधजननाभिप्रायमात्रप्रयुक्तपदघटितभाषात्वं भावभाषात्वमिति लक्षणं फलितम | अत एवेति। भावभाषाप्रयोजकाभिप्रायनिष्ठसत्त्ववैविध्यादेवेति। _ द्वितीयं चेति। सिता बलाकेत्युदाहरणमिति। ननु परमार्थतोऽनन्ताणुकस्कन्धानां पञ्चवर्णात्मकत्वाद् बलाकायाः पञ्चवर्णात्मकत्वेन तत्र शुक्लवर्णावधारणवचनस्य मृषात्वं शुक्लेतरवर्णव्यवच्छेदबाधादित्याशङ्कायामाह-शुक्लवर्णावसे आमलकी (संस्कृतभाषा का शब्द) आमलकी वृक्ष में स्त्रीलिंग का प्रतिपादक है, वेदोदय की अपेक्षा से नहीं। अतः वह भाषा व्यवहारसत्य भाषा ही है। इस विषय में यह कथन एक दिग्दर्शन है। इसके आगे और विचार किया जा सकता है-इस बात की सूचना देने के लिए 'दिक्' शब्द का प्रयोग किया गया है।।३१।।
व्यवहारसत्य भाषा का निरूपण पूर्ण हुआ। अब क्रमप्राप्त भावसत्य भाषा को, जो कि व्यवहारनयसंमत सत्यभाषा का ८वाँ भेद है, प्रकरणकार ३२वीं गाथा से बता रहे हैं। गाथार्थ :- सदभिप्रायपूर्वक ही बोली गई भाषा भावसत्य होती है, जैसे कि 'पारमार्थिक कुंभ' और 'सफेद बगुला' ये वचन ।३२।
* भावसत्यभाषा-८* विवरणार्थ :- प्रेक्षावान् वक्ता विवक्षापूर्वक शब्दप्रयोग करता है। विवक्षा का अर्थ है वक्ता की इच्छा यानी अभिप्राय | जब वक्ता का अभिप्राय सत् होता है तब उस अभिप्राय से बोली गई भाषा भावसत्य कही जाती है। जब वक्ता का अभिप्राय पारमार्थिकभावविषयक बोध उत्पन्न कराने का होता है तब वह सदभिप्राय कहा जाता है वैसे ही जब वक्ता का अभिप्राय शास्त्रीय व्यवहार से नियन्त्रित होता है, तब भी वह सदभिप्राय कहा जाता है। इस तरह सदभिप्राय के दो भेद होते हैं। अतएव भावसत्य भाषा के दो द्रष्टांत मूलगाथा में बताये गये हैं। प्रथम उदाहरण है - 'पारमार्थिक: कुंभः' अर्थात् जब कुंभ उपस्थित हो तब 'यह कुंभ (परमार्थसत्) है' यह वचन । द्वितीय उदाहरण है - 'बगुला सफेद है'। द्वितीय उदाहरण शास्त्रीय व्यवहार से नियन्त्रित अभिप्राय से प्रयुक्त है, क्योंकि बगुले में पाँच वर्ण संभवित होने पर भी - 'बगुला सफेद है' इस वाक्य से श्रोता को बगुले में श्वेतवर्ण
१ सा भवति भावसत्या या सदभिप्रायपूर्वमेवोक्ता । यथा परमार्थ कुम्भः सिता बलाका चैषेति ।।३२।।