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* पशुत्वस्योपाधित्वप्रतिपादनम् * वती कन्या, लवनयोग्यलोमाभाववत्येडकेत्याद्यर्थानामुदाहरणानाम् । गर्भधारणशून्यायामयं प्रयोगः क्रियते। तत्र चोदराभावस्याऽन्वयस्य तात्पर्यस्य वाऽनुपपत्तेर्लक्षणयाऽनुदरापदात् सम्भोगजबीजप्रभवोदराभाववत्युपस्थाप्यते। तस्याश्च तादात्म्येन कन्यापदार्थेऽन्वयः निपातातिरिक्तनामार्थयोर्भेदेनाऽन्वयबोधस्याऽव्युत्पन्नत्वात्।
अलोमा एडकेति। एडका पशुविशेषः, पशुत्वं न जातिः उच्चैःश्रवोनिष्ठतया तेजस्त्वेन साङ्कर्यात्। तदुक्तं सामान्यलक्षणाकाशिकानंदीकृता "तेजस्त्वाभाववति गवि पशुत्वस्य पशुत्वाभाववति वह्नौ तेजस्त्वस्य सत्त्वादुभयोरुच्चैःश्रवसि सांकर्यात्" (सा.ल.का.पृ.१२१) उच्चैःश्रवो नाम तैजसोऽश्वः । अतो लोमवल्लागूलवत्त्वं पशुत्वम् । तथा च लोमवल्लाङ्गुलवत्त्वस्य पशुत्वेन तद्वति तादात्म्येन लोमाभाववदन्वयस्य तात्पर्यस्य च बाधाल्लक्षणयाऽलोमापदेन लवनयोग्यलोमाभाववती प्रतिसन्धीयते। तस्याश्च तादात्म्येनैडकायामन्वयो भवति।
दशवैकालिकचूर्णी च- 'ववहारसच्चं नाम जहा अम्ह गामो, पिट्ठस्स वा सच्चमिति कहणं, छत्तएण आगमणं, डज्झति गिरि, गलइ भायणं लोगप्पसिद्धाणि । तहा गावी पिज्जइ, गावीए खीरं पिज्जइ, ण गावी सव्वा पिज्जइत्ति एवमादि।' इत्याद्यर्थानामिति । आदिपदात् 'पन्था गच्छती'त्यादीनां ग्रहणम् । पथिपदार्थस्य स्थिरस्य गम्धात्वर्थेऽन्वयस्य तात्पर्यस्य चानुपपत्तेः प्रतिसन्धानात् पथिशब्दस्य पथि गच्छति पुरुषसमुदाये लक्षणा। तत्प्रयोजनं च नैरन्तर्यप्रतीतिरिति दिक।
महोपाध्याय यशोविजयजी महाराजा कहते हैं कि - 'नदी पीयते' इस स्थल में 'नदी में रहा हुआ पानी पिया जाता है। उस प्रकार का बोध होता है 'दह्यते गिरिः' अर्थात् 'पर्वत जलता है इस वाक्य से लोगों को 'पर्वत पर विद्यमान घांस, लकडी आदि जलती हैं' - ऐसा शाब्दबोध होता है। इन दो द्रष्टांत का निरूपण किया है वह उपलक्षण है। अर्थात् सिर्फ ये दो वाक्य ही व्यवहारसत्य भाषा स्वरूप नहीं है मगर इससे अतिरिक्त अन्य भी अनेक वाक्य व्यवहारसत्य भाषास्वरूप है, जो लौकिक विवक्षा से प्रयुक्त होते हैं। जैसे-भाजन टपकता है, कन्या अनुदरा है, यह भेड़ लोमशून्य है - इत्यादि वाक्य । 'भाजन टपकता है' वाक्य को सुन कर लोगों को 'भाजन का पानी टपकता है' यह अर्थबोध होता है। हमारा अनुभव भी ऐसा ही है कि - 'यह मटका टपकता है' इस वाक्य को सुनकर हमें 'इस मटके में रहा हुआ पानी टपकता है' ऐसा शाब्दबोध होता है। इसी तरह 'यह कन्या उदरशून्य है' इस वाक्य को सुनकर - 'इस कन्या का पेट संभोग से गर्भाधान होने के पश्चात् जैसे बढता है वेसा नहीं है' - ऐसा बोध श्रोता को होता है। यहाँ कन्यापद परिणीत स्त्री का बोधक है। इसी तरह 'यह भेड़ बालवाली नहीं है' इस वाक्य से लोगों को ऐसा बोध होता है कि 'इस भेड़ के बाल काटने योग्य नहीं है', क्योंकि भेड़ में सर्वथा बाल का अभाव तो प्रत्यक्ष से ही बाधित है। अतः वक्ता का - 'अलोमा' पद से अर्थात् 'बालशून्य है' इस पद से 'काटने योग्य बाल से शून्य है' ऐसा बोध हो - यह तात्पर्य सिद्ध होता है। मतलब कि लोक में जैसी विवक्षा होती है उसके अनुसार जो वाक्यप्रयोग होता है वह व्यवहारसत्यभाषा है - यह सिद्ध होता है। __शंका :- दरअसल पर्वत नहीं जलता है, किन्तु पर्वत पर विद्यमान तृण-काष्ठ आदि जलता है तब वहाँ 'पर्वत जलता है' यह वाक्य तो झूठ ही सिद्ध होगा, क्योंकि पर्वत और पर्वत में रहे हुए तृण-काष्ठ आदि में परस्पर भेद होने पर भी अभेद का प्रतिपादन उस वाक्य से होता है। अतः व्यवहारभाषा मृषा होने की आपत्ति आयेगी।
* व्यावहारिक अभेद की अपेक्षा 'दह्यते गिरिः' इत्यादि भाषा सत्य * समाधान :- व्यावहारिका. इति । आपकी यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि 'पर्वत जलता है' इत्यादि भाषा तब मृषा होती यदि वास्तव में पर्वत और तृण काष्ठ आदि में अभेद का बोध कराना यहाँ इष्ट होता। मगर यहाँ पर्वत और तृणकाष्ठ आदि में तात्त्विक नैश्चयिक अभेद का तात्पर्य नहीं है, किन्तु व्यावहारिक अभेद का आश्रयण इष्ट है। व्यावहारिक अभेद का मतलब यह है कि व्यवहारसंमत अभेद का उपचार करते हैं। लोक आधार और आधेय आदि में अभेद का उपचार करते हैं। यहाँ पर्वतरूप आधार और तृण-काष्ठ आदि आधेय में अभेद का उपचार लोक में होता है। अतः लोकविवक्षा का आश्रयण अवलंबन करने से यह