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१४६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. ३१
० आमलक्यादी स्त्रीत्वादिप्रतिपादनस्य व्यवहारसत्यत्वम् ० न च गिरितृणादीनामभेदाभिधानान्मृषावादित्वप्रसङ्गः, व्यावहारिकाभेदाश्रयणेनाऽदोषत्वात् लोकविवक्षाग्रहणाच्च न रूपसत्याद्यतिव्याप्तिः । एवमामलक्यादौ एकेन्द्रियत्वेन नपुंसकत्वेऽपि स्त्र्याद्यभेदविवक्षया स्त्रीत्वादिप्रतिपादनमपि व्यवहारसत्यमेवेति द्रष्टव्य
मृषावादित्वप्रसङ्ग इति। अतस्मिंस्तज्ज्ञानजनकत्वेन 'गिरिर्दह्यत' इत्यादिव्यवहारभाषायां मृषात्वमापाद्यते शङ्काकारेण | तन्निरासे हेतुमाह-व्यवहारिकेति। अभिवादन-प्रत्यय-लक्षण-हेतुप्रभृतिभेदेन निश्चयतः तृणादेर्गिरिभिन्नत्वेऽपि व्यवहारत आधाराधेयादीनामभेदात् व्यवहारनयसम्मततादृशाभेदविवक्षणान्न व्यवहारभाषाया मृषात्वम्। अयं भावः 'गिरिर्दह्यत' इत्यादौ यदि निश्चयनयाभिमताऽभेदविवक्षा स्यात् तदा मृषात्वं स्यात् किन्तु व्यवहारनयाभिमताभेदविवक्षणे न मृषात्वम् । अत एवेयं निश्चयसत्यभाषा न भण्यते परं व्यवहारसत्येति। व्यवहारतः सत्यत्वं व्यवहारमाश्रित्य सत्यत्वमिति यावत। भूयो दग्धत्वादिप्रतीतेः प्रयोजनत्वान्न निरर्थकत्वम। तत्स्थत्व-तत्सामीप्यतादादिभ्यः तद्व्यपदेशस्य लोकव्यवहाररूढत्वं तु सुप्रसिद्धमेव। एतेन साधोप॑षावादित्वप्रसङ्गोऽपास्तः, लोकव्यवहारमपेक्ष्य साधोरपि तथा ब्रुवतो भाषाया व्यवहारसत्यत्वस्याऽनपायात् तात्पर्याबाधादिति दिक् । __ ननु व्यवहारिकाभेदस्यौपचारिकत्वात् रूपसत्याऽतिव्याप्तिः, तस्याः तद्रूपवत्युपचारेण प्रवर्तमानत्वादित्याशङ्कायामाह लोकविवक्षाग्रहणाच्चेति । अयं भावः भावार्थबाधप्रतिसन्धानसध्रीचीनलोकविवक्षामात्रगृहीतोपचारकपदघटितभाषात्वं व्यवहारसत्याया लक्षणमभिप्रेतम्। रूपसत्याया भावार्थबाधदशायां तद्रूपवद्गृहीतोपचारकपदघटितभाषात्वेन लोकविवक्षामात्रगृहीतोपचारकपदघटितभाषात्वस्याभावात् तत्र नातिव्याप्तिः। मात्रपदग्रहणान्न नामसत्याद्यतिव्याप्तिरित्याहनीयम् ।
नन्वामलक्यादौ नपुंसकत्वव्याप्यैकेन्द्रियत्ववत्त्वप्रतिसन्धानाद् 'इयं आमलकी'त्यादिरूपेण स्त्रीत्वादिप्रतिपादकभाषाया मृषात्वं स्यात् तदभाववति तत्प्रकारकशाब्दबोधजनकत्वादित्याशङ्कायामाह-एवमिति । लोकव्यवहाराश्रयणादित्यर्थः । निश्चयत आमलक्यादावेकेन्द्रियत्वव्यापकनपुंसकत्ववत्त्वनिश्चयेन यदि वेदोदयविवक्षामाश्रित्य तत्र स्त्रीत्वादिप्रतिपादनं स्यात्तदा मृषात्वं स्यादेव किन्तु लौकिकशाब्दव्यवहाराश्रयणेन तत्र स्त्र्याद्यभेदविवक्षया स्त्रीत्वादिप्रतिपादकवचने न मृषात्वं व्यवहारसत्यत्वस्याव्याहतत्वादिति।
अनेनैवाभिप्रायेण- "अहं भंते! पुढवीत्ति इत्थिवऊ, आऊत्ति पुमवऊ, धण्णित्ति नपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसा भासा? भाषा निर्दोष है-सत्य है। अतएव यह भाषा व्यवहारसत्य कही जाती है। व्यवहार लोकविवक्षा की अपेक्षा से ही इस भाषा में सत्यत्व इष्ट है।
लोकविवक्षाग्रह. इति। यहाँ यह शंका करने की कोई आवश्यकता नहीं है कि - "तात्त्विक अभेद न होने पर भी यदि औपचारिक अभेद की लौकिक विवक्षा का आश्रयण होने से यह व्यवहारसत्य भाषा कही जाती है, तब तो रूपसत्य आदि भाषा भी व्यवहारसत्य भाषा हो जायेगी, क्योंकि द्रव्यलिङ्गी में भावलिङ्गी के औपचारिक अभेद की विवक्षा से ही रूपसत्य आदि भाषा का प्रयोग होता है।" - इसका कारण यह है कि रूपसत्य भाषा रूप की विवक्षा से प्रवृत्त होती है जब कि व्यवहारसत्य भाषा लौकिकविवक्षा से प्रवृत्त होती है। जिस जिस स्थल में लोगों की जैसी विवक्षा होती है उसके अनुसार ही जो वाक्यप्रयोग हो वह व्यवहारसत्य भाषा रूप से यहाँ इष्ट है। रूपसत्य आदि भाषा सिर्फ लोकविवक्षा से प्रवृत्त नहीं होती है किन्तु रूप = वेश से प्रवृत्त होती है। अतः रूपसत्य आदि भाषा व्यवहारसत्य भाषा नहीं बनेगी।
* एकेन्द्रिय में स्त्रीत्यादि प्रतिपादन व्यवहारसत्य है* एवम्. इति । उपर्युक्त कथन के खिलाफ यह शंका कि - "आमलकी आदि वृक्ष एकेन्द्रिय होने से नपुंसक ही हैं, क्योंकि एकेन्द्रियमात्र को नपुंसक वेद का उदय होता है। फिर भी आमलकी के वृक्ष में आमलकी शब्द का, जो कि स्त्रीलिंग का प्रतिपादक है, प्रयोग होता है। यह मृषावाद ही होगा।" - भी निराधार सिद्ध हो जाती है, क्योंकि आमलकी आदि पद आमलकी वृक्ष आदि में स्त्री आदि के अभेद की विवक्षा से आमलकी आदि में स्त्रीलिंग का प्रतिपादक है। आशय यह है कि शाब्दव्यवहार की अपेक्षा