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११६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त. १. गा. २५
अस्तु वा तत्र निरूढलक्षणा तथापि सङ्केतशब्देन तदाश्रयणान्न दोष इति दिग् । स्यात् भ्रान्तत्वप्रसक्तेः। न हि पदशक्तिर्भाषकादेर्दोषादिप्रतिसन्धानाऽप्रतिसन्धानावलम्बिनी । अतः स्थापनायां पदशक्तिकल्पना न कार्या मानाभावात् । तदुक्तम् तन्त्रवार्तिके 'प्रमाणवन्त्यदृष्टानि कल्प्यानि सुबहून्यपि । वालाग्रशतभागोऽपि न कल्प्यो निस्प्रमाणकः ।। (त. वा. २-१-२-५ ) इत्येवं यदि परः स्थापनायां शक्तिकल्पनेऽस्वरसं दर्शयेत् तदा कल्पान्तरमाह - 'अस्तु वेति । तत्र = स्थापनायां निरूढलक्षणेति अनादितात्पर्यविषयीभूताऽर्थनिष्ठा निरूढलक्षणा । ‘दोषादिप्रतिसन्धानरूपबाधकेऽसत्येव यति -जिनादिपदं यति -जिनादिस्थापनापरं' इत्याकारकानादितात्पर्यस्य विषयीभूतयति-जिनादिस्थापनायां लक्षणा निरूढलक्षणेति हृदयम् । स्थापनायां निरूढलक्षणाप्रदर्शनार्थमेव शक्तिपदं विहाय सङ्केतपदस्य निवेशः कृतः । तदाश्रयणात् निरूढलक्षणाऽऽश्रयणात्,
लक्षणा
न दोषः = नासंग्रहदोष इति ।
इदं चात्र ध्येयं, स्थापनायां निरूढलक्षणाप्रदर्शनं त्वभ्युपगमवादमाश्रित्य कृतं न तु स्वमतेन । तदुक्तं प्रकरणकारेणाऽष्टसहस्रीतात्पर्यविवरणे 'गोपदशक्यतावच्छेदकं निक्षेपचतुष्टयानुगतगोत्वमेकं तद्व्याप्यानि च भावगोत्वादीनि नानेति निष्कर्ष' ( ) इति। तथा च प्रकृते जिनपदशक्यतावच्छेदक-निक्षेपचतुष्टयानुगतजिनत्वव्याप्यस्थापनाजिनत्वं सर्वेषु स्थापनात्मकेषु जिनेष्वेकमिति सिद्धमिति बहुतरमूहनीयमिति सूचनाथ दिक्पदप्रयोगः कृतः ।
● स्थापनायां विशेषविचारः O
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* स्थापना में निरूढलक्षणा का भी संभव है *
अस्तु वा. इति । अब विवरणकार स्थापना के विषय में अन्य प्रकार का निरूपण करते हैं। यदि स्थापना में पद की शक्ति के स्वीकार में किसीको हिचकिचाहट हो तब आप स्थापना में निरूढलक्षणा भी मान सकते हैं। निरूढलक्षणा का अर्थ है अनादितात्पर्यवती लक्षणा अर्थात् जिस शब्द का योगार्थ जहाँ बाधित हो फिर भी अनादिकाल से उस शब्द से उस अर्थ का बोध कराने का तात्पर्य = वक्ता का अभिप्राय हो तब उस अर्थ में उस शब्द की निरूढलक्षणा होती है। जैसे कि 'कुशं लाति इति कुशलः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार कुशल शब्द की कुशछेदनरूप अर्थ में शक्ति है, फिर भी कुशल शब्द का निपुण होशियार अर्थ के बोध कराने के तात्पर्य से, जो कि अनादिकालीन है, प्रयोग वक्ता करता है। अतः निपुणरूप अर्थ में कुशल - शब्द की निरूढलक्षणा हुई । ठीक वैसे ही जिनशब्द की 'रागादीन् जयति इति जिनः इस व्युत्पत्ति के अनुसार भावजिनेश्वररूप अर्थ में= रागादिविजेता अर्थ में शक्ति होती है, फिर भी 'जिनेश्वर भगवंत की पूजा करो, पक्षाल करो 'जिनेश्वर भगवंत की आंगी रचाओ इत्यादि वाक्यप्रयोग में वक्ता जिनेश्वरशब्द का जिनेश्वर की स्थापना = प्रतिमारूप अर्थ के अभिप्राय से प्रयोग करता है यह तो सुविदित ही है। लोगों का अभिप्राय अनादिकाल से जिनशब्द से जिनेश्वर की प्रतिमा स्थापनारूप अर्थ में होता है। अतः स्थापना में शब्द की निरूढलक्षणा भी हो सकती है। इसी सबब प्रकरणकार ने २५वीं गाथा में 'अवगयभावत्थरहियसत्ती' ऐसा प्रयोग न कर के 'अवगयभावत्थरहियसंकेया' ऐसा प्रयोग किया है। संकेतशब्द शक्ति और लक्षणा दोनों अर्थ में प्रयुक्त होता है। अतः संकेतशब्द का निरूढलक्षणा अर्थ करने में कोई बाध नहीं है। अतः स्थापना में निरूढलक्षणा मानने में भी कोई दोष नहीं है ।
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शंका :- यदि स्थापना में पद की निरूढलक्षणा मानेंगे तब तो स्थापनासत्य भाषा में सम्मतसत्य भाषा के लक्षण की प्रवृत्ति होने से स्थापनाभाषा भी सम्मतसत्य भाषास्वरूप ही बन जायेगी। आशय यह है कि जैसे पंकज आदि शब्द, जो कि सम्मतसत्य भाषारूप है, शैवाल कीडे आदि अर्थ में पंकजनिकर्तृत्वरूप योगार्थ होने पर भी अरविंदरूप अर्थ में ही रूढी से प्रवृत्त होता है वैसे ही स्थापनासत्य भाषा भी अन्यत्र = भावजिन आदि में जिनादि शब्द का योगार्थ होने पर भी स्थापनाजिनादि का हि रूढी से बोध कराती है। तब तो रूढीअर्थ का बोधकत्व सम्मतसत्यभाषा और स्थापनासत्यभाषा में समान होने से स्थापनासत्यभाषा भी सम्मतसत्य भाषास्वरूप ही बन जायेगी ।
*सम्मतसत्य और स्थापनासत्य के लक्षणों में सांकर्य नहीं है *
समाधान :- आप बिना सोचे दूसरों के दोष ही देखते हैं। ठीक कहा है - चूहे का बच्चा बिल ही खोदेगा। लेकिन आपको यह