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१३४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. २९
० अवच्छेदकत्वस्वरूपविमर्शः ० एकत्रैव महीरुहे मूलशाखाद्यवच्छिन्नसंयोग-तदभावादीनामवच्छेदकरूपनिमित्तभेद इत्याहनीयम्। 'सदसद्वरेण्यम्' (मु.उप.२/१) इति मुण्डकोपनिषद्वचनस्य च प्रामाण्योपपादनमपेक्षाभेदं विना परैः कथमपि कर्तुं नैव शक्यते इत्यनेकान्तवाद एव विजयतेतरामिति दिग।
वस्तुरूपं ह्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधितम् । अज्ञात्वा दूषणं तस्य, निजबुद्धिविडम्बनम्।। - पूर्वं "व्यञ्जकप्रतियोग्यादिरूपनिमित्तभेद" इत्यत्राऽऽदिपदनिवेशः कृतः तत्साफल्यं प्रदर्शयति- 'एकत्रैवेति वृक्ष शाखावच्छेदेन कपिसंयोगो मूलावच्छेदेन कपिसंयोगाभाव इति प्रतीतिबलादवच्छेदकभेदेनैकत्रैव विरुद्धधर्मसमावेशस्य न्याय्यत्वात् । अत एव "आपेक्षिकधर्माणामेकत्र स्थितो विरोधो न्यायदर्शनमते न स्वीक्रियते।" (न्या मु.प्र.पृ.३९) इति वदन् न्यायसिद्धान्तमुक्तावलीप्रभाकृदपि स्याद्वादमनुपतति। ___ एतेन "न चाऽन्योन्याभावस्याऽव्याप्यवृत्तित्वं अभेदस्याऽबाधितप्रत्यभिज्ञानादिति" गङ्गेशेन तत्त्वचिन्तामणौ विशेषव्याप्तिप्रकरण उक्तं तत्प्रत्युक्तं, "वृक्षोऽग्रावच्छेदेन कपिसंयोगी न मूलावच्छेदेने'ति किञ्चिदवच्छिन्नभेदगोचरप्रतीतिमहिम्ना भेदस्याऽव्याप्य-वृत्तित्वस्य सिद्धेः, वृक्षवृत्तितयैव भेदस्य ग्रहात्। न च कपिसंयोगिभिन्नभेदज्ञानं बाधकं, कपिसंयोगिभेदवत्तद्वद्भेदस्याप्यव्याप्यवृत्तित्वेनाविरोधात्। नापि मूलावच्छेदेन तज्ज्ञानं बाधकम्, असिद्धेः, तद्धर्मवद्भिन्नभेदस्य तद्धर्ममात्रपर्यवसिततया कपिसंयोगिभिन्नभेदात्मनः कपिसंयोगस्य मूलवृत्तित्वे विरोधाच्च । न हि घटभिन्नभेदो घटत्वादतिरिच्यते, क्लुप्तघटत्वेनैवोपपत्तौ अतिरिक्तकल्पनायां मानाभावात् । यथा घटवत्ताग्रहे घटाभावाग्रहात् घटाभावाभावव्यवहाराच्च घटाभावाभावो घटस्वरूपस्तथा कपिसंयोगिभिन्नभेदवत्ताग्रहे कपिसंयोगाभावाग्रहात् कपिसंयोगव्यवहाराच्च कपि-संयोगः कपिसंयोगिभिन्नभेदस्वरूप एवेति दिक्।
अवच्छेदकरूपनिमित्तभेद इति। अवच्छेदकत्वं च पक्षधरमिश्रमते स्वरूपसम्बन्धविशेषः दीधितिकारमते चानतिविवरणकार ने दी है।
* एक ही धर्मी में अवच्छेदकरूप निमित्तभेद से विलक्षण प्रतीत्यधर्मों का समावेश * एकत्रैव. इति । अब विवरणकार अवच्छेदकरूप निमित्तभेद से एक ही धर्मी में विलक्षण प्रतीत्यभावों का समावेश बताते हैं। एक ही वृक्ष में शाखा भाग में जब बंदर होता है और मूल भाग में बंदर नहीं होता है तब लोगों को यह प्रतीति होती है कि 'वृक्षः शाखावच्छेदेन कपिसंयोगी मूलावच्छेदेन कपिसंयोगाभाववान्' अर्थात् वृक्ष अपनी शाखा की अपेक्षा कपिसंयोगवाला है और अपने मूलरूप भाग की अपेक्षा कपिसंयोग के अभाववाला है। यद्यपि आपाततः कपिसंयोग और कपिसंयोगाभाव का परस्पर विरोध प्रतीत होता है फिर भी अवच्छेदकभेद का अवलंबन करने पर यह विरोध भी समाप्त होता है। दोनों ही अवच्छेदकभेद से एक ही द्रव्य में रहते हैं। इस तरह इस विषय में सूक्ष्मता से अधिक विचार भी किया जा सकता है - इसकी सूचना देने के लिए विवरणकार ने 'इत्यादि ऊहनीयम्' ऐसा शब्दप्रयोग किया है।
शंका :- 'अणुत्व.' इति । अणुत्व-महत्त्वादि धर्म निमित्तभेद से एक धर्मी में रहते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं है - यह प्रतिपादन करना उचित नहीं है, क्योंकि एक ही धर्मी में अणुत्व-महत्त्वादि धर्मों का परस्पर विरोध हम मानते ही नहीं हैं। अणुत्व-महत्त्व आदि में विरोध हो तब अवच्छेदकभेद - निमित्तभेद आदि का आश्रय करना संगत होता। मगर वैसा है ही कहाँ? "जैसे एक धर्मी में रूपरस आदि धर्म एक साथ बिना किसी निमित्तभेद के रहते हैं, ठीक वैसे ही एक धर्मी में अणुत्व-महत्त्व आदि धर्म रह सकते हैं। अतः निमित्तभेद को बताकर एकत्र अणुत्व-महत्त्वादि धर्म का समावेश करना ठीक नहीं है।
* प्रतीत्यभाव सर्वथा अविरोधी नही है * ___समाधान :- हन्त तर्हि. इति। जनाब ऐसा कहने से भी आपका सितारा न चमकेगा, क्योंकि यदि आप अणुत्व-महत्त्वादि प्रतीत्यभावों में सर्वथा अविरोध मानेंगे तब आपत्ति यह आयेगी कि अनामिका कनिष्ठा की अपेक्षा से भी छोटी हो जायेगी। आशय यह प्रतीत होता है कि - यदि वस्तु में किसी अपेक्षा से या निमित्तभेद से प्रतीत्यभाव का समावेश न किया जाय किन्तु सर्वथा यानी