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१४२ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. १. गा. ३० इति किमतिप्रसङ्गेन! । । ३० ।।
● प्रशस्तपादभाष्यस्य अप्रशस्तत्वप्रतिपादनम् o
तथाव्यवहारनिमित्त्वात्, तज्जन्याऽतिरिक्तसङ्ख्याऽसिद्धे' (स्या. क. स्त. ३ / श्लो. ९) रिति वदता प्रतिपादितं, अत्र चापेक्षाबुद्धेर्द्वित्वादिज्ञाननिमित्तत्वं 'अपेक्षाबुद्धिव्यङ्ग्यत्वमिति वदता प्रतिपादितमित्यनयोरापाततो विरोधः प्रतिभाति तथापि तत्त्वदृष्ट्या नास्ति विरोधः । तथाहि परमार्थतस्त्वपेक्षाबुद्धेर्द्वित्वादिज्ञाननिमित्तत्वमेव परं व्यवहारस्य व्यवहर्तव्यज्ञानाधीनत्वाद् द्वित्वादिव्यवहर्तव्यविषयकज्ञानजनिकायामपेक्षाबुद्धौ द्वित्वादिव्यवहारजनकत्व - प्रतिपादनमपि 'दासेन मे खरः क्रीतो दासोऽपि मे खरोऽपि मे' इति व्यवहारनयाभिमतन्यायेन सङ्गच्छते इति मे मतिः ।
द्वित्वादौ व्यङ्ग्यत्वं न स्वमनीषिकाकल्पितं, तदुक्तं स्याद्वादरत्नाकरे - 'द्वित्वादिकं बाह्यार्थधर्मः अपेक्षाबुद्ध्यभिव्यङ्ग्यं न त्वपेक्षाबुद्धिजन्यम् । द्वित्वादिकं बुद्धिजं न भवति संख्यात्वात् एकत्ववत्।' (स्या.रत्ना.५/८)
एतेन 'यदा बोद्धुश्चक्षुषा समानासमानजातीययोर्द्रव्ययोः सन्निकर्षे सति तत्संयुक्तसमवेतसमवेतैकत्वसामान्यज्ञानोत्पत्तावेकत्वसामान्यतत्सम्बन्धज्ञानेभ्य एकगुणयोरनेकविषयिण्येका बुद्धिरुत्पद्यते तदा तामपेक्ष्यैकत्वाभ्यां स्वाश्रययोर्द्वित्वमारभ्यते।' (प्र.श. भा. पृ. २७२) इति प्रशस्तपादभाष्यकारवचनमपहस्तितम्, घटद्वये कालभेदेनाऽपेक्षाबुद्धिभेदेनाऽपरिमितद्वित्वोत्पत्त्यप्रामाणिककल्पनापत्तेः । तदुक्तम् मीमांसाकुतूहले 'अपेक्षाबुद्धेरभिव्यञ्जकत्वेन द्वित्वाऽहेतुत्वात् घटद्वये सहस्रपुंसां कालभेदेनाऽपेक्षाबुद्धिभेदेन सहस्रद्वित्वाऽऽपत्तेः । क्लृप्ते प्रत्यक्षसहस्रे द्वित्वस्य हेतुत्वे लाघवात् । समवायस्य समवायिनिमित्तकल्पनेऽपेक्षाबुद्धिनाशस्य तन्नाशं प्रति हेतुत्वेऽतिगौरवाच्च अन्यथा ह्रस्वत्व-दीर्घत्व-स्थूलत्व-सूक्ष्मत्वादिकमप्यपेक्षाबुद्धिजन्यं स्यात् । द्वित्वादिकं नापेक्षाधीजन्यं सङ्ख्यात्वादेकत्ववदित्यनुमानादिति' (मी. कु. पृ. ३४)
ननु व्यङ्ग्यत्वपक्षे कार्यतावच्छेदकगौरवदोषं किं विस्मरसि ? न, बाढं स्मरामि, श्रुणु - मन्मतेऽपि स्वाश्रयविषयतया द्वित्वत्वस्यैव कार्यतावच्छेदकतया न गौरवदोषः । न च विषयताया विषयभेदेन भिन्नत्वात् व्यङ्ग्यत्वनये सम्बन्धाननुगमो दोष इति वाच्यम् सम्बन्धाननुगमस्याऽदोषत्वात्, अन्यथा चाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति चक्षुष्ट्वेनाऽपि कारणता न स्यात् संयोगादिप्रत्यासत्तीनामननुगमात् । अस्तु वा विषयतानामनुगमकं विषयतात्वमप्यतिरिक्तम् अन्यथा विषयभेदेन विषयताया भेदात् 'घटो ज्ञानविषयो, घटो ज्ञानविषय' इत्याकारिकाया अनुगतप्रतीतेरनुपपत्तेरिति दिक् । नैयायिकमत में अपेक्षाबुद्धि द्वित्व आदि संख्या का निमित्त कारण है समवायिकारण नहीं । निमित्त कारण में भेद होने पर उसके कार्य में कोई वैजात्य नहीं होता है। कुम्हार चाहे काष्ठ दंड से घट बनाये चाहे सुवर्ण दंड से घट बनाये, मगर तज्जन्य घट में कोई वैजात्य नहीं होता है। ठीक वैसे ही अपक्षाबुद्धि भी द्वित्यादि का निमित्त कारण है - ऐसा मानने पर अपेक्षाबुद्धि चाहे चैत्र की हो चाहे मैत्र की हो मगर तज्जन्य द्वित्व संख्या में कोई चैत्रीयत्व या मैत्रीयत्व नाम का विलक्षण धर्म नहीं होता है, जिससे भिन्नभिन्न चैत्रीय, मैत्रीय द्वित्व की सिद्धि हो सके। जब चैत्रीय द्वित्व या मैत्रीय द्वित्व जैसी कोई चीज ही नहीं है तब 'चैत्र के द्वित्वप्रत्यक्ष में चैत्रीय द्वित्व हेतु है' यह कहना कैसे संगत होगा ? अब तो हमने पूर्व में जो आपत्ति उठाई थी कि चैत्र की अपेक्षाबुद्धि से जन्य द्वित्व का मैत्र को भी प्रत्यक्ष होगा वह वज्रलेप बन जायेगी। मान न मान मैं तेरा मेहमान ! दूसरी बात यह है कि व्यंग्यपक्ष में भी स्वाश्रयविषयता सम्बन्ध से द्वित्वत्व को ही कार्यतावच्छेदक माना जा सकता है। इसलिए जन्यत्वपक्ष की अपेक्षा व्यंग्यत्वपक्ष में कोई गौरवदोष नहीं है बल्कि अपरिमित द्वित्व के प्रागभाव, उत्पाद, ध्वंस आदि कल्पना की आवश्यकता न होने से जन्यत्वपक्ष की अपेक्षा व्यंग्यत्वपक्ष में लाघव भी है। अतः द्वित्व आदि संख्या को व्यंग्य मानना ही युक्तियुक्त है यह सिद्ध हुआ। इस विषय का विस्तार अन्यत्र = नयोपदेश आदि ग्रंथ में प्राप्य है।
इस तरह इस गाथा के विवरण से यह सिद्ध हुआ कि प्रतीत्यभाव परापेक्षी होने पर भी तुच्छ नहीं हैं मगर निष्प्रतियोगिक भाव की तरह पारमार्थिक ही हैं । ३० । प्रतीत्यसत्यभाषा का निरूपण समाप्त हुआ। अब श्रीमद्जी ३१वीं गाथा से क्रमप्राप्त व्यवहारसत्यभाषा का निरूपण करते हैं ।