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१२० भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. २७
० उपचारनिमित्तोपदर्शनम् ० उक्ता नामसत्या। अथ रूपसत्यामाह- । "एमेव रूवसच्चा णवरं णामंमि रूवअभिलावो। ठवणा पुण ण पवट्टइ, तज्जातीए सदोसे अ।।२७।।
एवमेव = नामसत्यावदेव, रूपसत्या ज्ञेया, नवरं = केवलं, नाम्नि = नामस्थले रूपाभिलापः = रूपशब्दप्रयोगः कर्तव्यः । तथा च भावार्थबाधप्रतिसन्धानसध्रीचीनतद्रूपवद्गृहीतोपचारकपदघटितभाषात्वं तल्लक्षणम्। अस्ति च प्रकटप्रतिषेविणि 'अयं यति'रिति यमतेन शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तभूतक्रियाविरहितस्याऽवस्तुत्वं, शब्दार्थविरहात्। 'अपि' शब्दात् क्रियाविशिष्टे वस्तुनि वर्तमानस्य नाम्न एवंभूताभिप्रायेण सत्यत्वमेव न त्वसत्यत्वमिति दर्शितम्। ___ यत्तु नाम अर्थमननुसृत्य प्रवृत्तं सत् पश्चाद् यथावस्थितार्थप्रतिपादकं जातं तत्र व्यवहारनयेन नामसत्यत्वमेव न तु परिणामसत्यत्वम्; अर्थमनुसृत्य प्रवृत्तस्य नाम्नो वाच्यस्य पश्चाद् भावार्थवियुक्तत्वे सत्यपि तन्नाम्नि व्यवहारतो नामसत्यत्वं न किन्तु परिणामसत्यत्वमित्यादिसूचनार्थमूह्यमित्युक्तम् ।।२६।।
भावार्थेत्यादि। योगार्थाभावज्ञानसहकृतः तद्रूपवति-योगार्थवद्रूपवति द्रव्यलिङ्गिन्यादौ गृहीत उपचारो यस्य पदस्य तेन पदेन घटिता भाषा, तस्या भावः तत्त्वं तल्लक्षण रूपसत्यालक्षणम्। उपचारहेतुश्चाऽत्र तद्रूपयोगः। तदुक्तं गौतमीयन्यायसूत्रे 'सहचरण-स्थान-तादर्थ्य-वृत्त-मान-धारण-सामीप्य-योग-साधनाधिपत्येभ्यो ब्राह्मण-मञ्च-कटराज-सक्तु-चन्दन-गंगा-शाटकानपुरुषेष्वतद्भावेऽपि तदुपचारः (न्या.सू. २/२/६४) इति। प्रकटप्रतिषेविणीति प्रवचनोपघातनिरपेक्षमेव मैथुनजलानलादिसेविणि लिङ्गिनीत्यर्थः।
यद्यपि निह्नवेषु रजोहरणादिरूपलिङ्गसत्त्वेऽपि भावयतित्वविरहेण लिङ्गस्य श्रामण्याऽव्याप्यत्वान्न ततो यतित्वानुमानं सम्भवति किन्तु श्रामण्यव्याप्यसदालय-विहारादिलिङ्गज्ञानेन तु यतित्वविधेयकानुमितिः सम्भवति। तदुक्तंमें सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने की विवरणकार सूचना देते हैं।।२६।।
नामसत्याभाषा का निरूपण पूर्ण हुआ। अब प्रकरणकार उद्देशक्रमानुसार व्यवहारनयाभिमत द्रव्यविषयक सत्य द्रव्यभावभाषा के पाँचवें भेद रूपसत्यभाषा का २७वीं कारिका से निरूपण करते हैं।
गाथार्थ :- नामसत्य की तरह रूपसत्य भाषा को जाननी चाहिए। सिर्फ नाम के स्थान में रूपशब्द का अभिलाप-प्रयोग करना होगा। रूपसत्य भाषा के विषय में, जो कि तज्जातीय और दुष्ट है, स्थापनासत्य भाषा प्रवृत्त नहीं होती है।२७।
* रूपसत्य भाषा - ५ * विवरणार्थ :- नामसत्य भाषा और रूपसत्य भाषा के लक्षण में विशेषभेद नहीं है। सिर्फ नामशब्द के स्थान में रूपशब्द का प्रयोग होता है तब नामसत्य भाषा का लक्षण ही रूपसत्य भाषा का लक्षण हो जाता है। इस कथन से रूपसत्यभाषा का लक्षण क्या प्राप्त होता है? इसका समाधान स्वयं विवरणकार ही दे रहे हैं कि - जिस अर्थ में जिस शब्द के योगार्थ के अभाव का ज्ञान होने पर, उसमें भावार्थ से युक्त वस्तु के सदृश रूप-लिंग-चिह्न देख कर उपचार से उस भावार्थशून्य वस्तु में उस शब्द से घटित जिस भाषा की प्रवृत्ति होती है, वह भाषा रूपसत्य भाषा कहलाती है। यह द्रष्टांत से स्पष्ट हो जायेगा। जैसे कि प्रकट ही शासनहीलना से निरपेक्ष हो कर जो साधुवेशधारी अनाचार का सेवन करता है, उसमें यतिशब्द का प्रयोग - 'यह यति है' - इस तरह होता है वह रूपसत्यभाषा है। आशय यह है कि यतिशब्द का भावार्थ है इन्द्रियों का नियमन-दमन करनेवाला। प्रत्यक्ष में ही अनाचारसेवी साधुवेशधारी में यतिशब्द का योगार्थ नहीं है - यह ज्ञान होने पर साधुवेश के योग से उसमें यतिशब्द का उपचार कर के 'यह साधु है' ऐसा बोलना वह रूपसत्य भाषा है। जैसे नामसत्य भाषा सिर्फ नाम की अपेक्षा से ही सत्य है, वैसे रूपसत्य भाषा भी सिर्फ रूप-वेश की अपेक्षा से ही व्यवहारनय की दृष्टि से सत्य है। व्यवहारनय लोकव्यवहार पर अवलंबित होता है। अतः उसकी दृष्टि से यतिगुणशून्य वेशधारि में 'यह साधु है' इत्यादि भाषा रूपसत्य भाषा है।
१ एवमेव रूपसत्या नवरं नाम्नि रूपाभिलापः। स्थापना पुनर्न प्रवर्तते तज्जातीये सदोषे च ।।२७।।