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* रूपस्थापनासत्ययोर्मिन्नत्वसाधनम *
१२३ एवञ्च 'अतद्रव्ये तदाकारः स्थापना' 'कूटद्रव्यं च रूपमि ति प्रतिविशेषो ज्ञेयः ।।२७।। उक्ता रूपसत्या।। अथ प्रतीत्यसत्यामाह'अविरोहेण विलक्खणपडुच्चभावाण दंसिणी भासा । भन्नइ पडुच्चसच्चा, जह एगं अणु महंतं च।।२८।। अविरोधेन = निमित्तभेदोपदर्शनाद्विरोधपरिहारेण, विलक्षणानां = निमित्तभेदमन्तरेणैकप्रतिसन्धानाऽगोचराणां, प्रतीत्यभावानां =
अतदद्रव्ये तदाकार इति। भावार्थविशिष्टभिन्नद्रव्ये भावार्थविशिष्टतुल्याकारः स्थापनेति भावः । एतच्च सद्भूतस्थापनाऽपेक्षयैव द्रष्टव्यम्। कूटद्रव्यमिति अशुद्धद्रव्यं, दुष्टद्रव्यमिति यावत् । एवं च प्रतिमायां 'जिन' इत्यादिवचनं प्रतिष्ठादियोग्यताबलात् भावजिनविषयतया स्थापनास्थाप्याभेदविषयतया वा पर्यवस्यत् स्थापनासत्यं, द्रव्यलिङ्गिनि यतिरित्यादिवचनं भावयतित्वबाधेनाऽपकृष्टसाधुविषयतयाऽसाधुविषयतया वा पर्यवस्यद् रूपसत्यमिति फलितमिति दिक् ।।२७।।
निमित्तभेदोपदर्शनात् विलक्षणप्रतीत्यभावीयप्रतियोग्यादिरूपविलक्षणनिमित्तप्रदर्शनात्। विरोधपरिहारेणेति सहानवस्थानादिविरोधापहारेणेत्यर्थः। तादशभावानां विरोधविघटकतया प्रमाजनकत्वात्प्रतीत्यसत्यत्वं ज्ञेयम। - इस विषय में श्रीभद्रबाहुस्वामीजी का वचन साक्षी है। देखिये, यकिन हो जायेगा। उन्होंने श्रीआवश्यकनियुक्ति में कहा है कि - "लिंग में यानी लिंगी में तो दोनों सावध कर्म और निरवद्य कर्म रहते हैं जब कि प्रतिमा में तो दोनों यानी सावद्य क्रिया और निरवद्य क्रिया नहीं हैं" | चरम श्रुतकेवली के वचन से यह साफ साफ सिद्ध हो जाता है कि सजातीय में स्थापना प्रवृत्त नहीं होती है, क्योंकि स्थापना के विषयभूत जिन प्रतिमा में तीर्थकर्तृत्वादि की अपेक्षा भावजिन के साजात्य के अभाव का प्रतिपादन किया गया है। वैसे ही स्थापना सदोष विषय में प्रवृत्त नहीं होती है, क्योंकि स्थापना के विषयभूत प्रतिमा में निरवद्य क्रिया के अभाव का भी प्रतिपादन किया गया है। इस विषय की विस्तार से चर्चा स्वयं प्रकरणकार ने ही अध्यात्ममतपरीक्षा नाम के ग्रंथ में की है। जिज्ञासु को स्वरचित अध्यात्ममतपरीक्षा ग्रंथ को देखने की विवरणकार सूचना देते हैं। देखिये, उस ग्रंथ की ५८वीं गाथा की व्याख्या।
___ * स्थापना और रूप भिन्न भिन्न है * एवं इति । उपर्युक्त कथन के निष्कर्ष रूप में विवरणकार स्थापना और रूप के वैजात्य को बताते हुए कहते हैं कि - 'अतद्रव्य में तदाकार स्थापना है और कूटद्रव्य रूप है।' आशय यह प्रतीत होता है कि तद्रव्य का अर्थ है भावनिक्षेप। अतद्रव्य का अर्थ है भावनिक्षेप से भिन्नद्रव्य । तदाकार का अर्थ है भावनिक्षेपसदृश आकार । अतः स्थापना का अर्थ होगा भावनिक्षेप से भिन्नद्रव्य में भावनिक्षेपतुल्य जो आकार है वह स्थापना है। यह अर्थ स्थापना अरिहंत आदि स्थल में ठीक तरह संगत होता है, क्योंकि जिनप्रतिमा भावअरिहंत से भिन्न है और भावअरिहंत के तुल्य आकारवाली होती है। कूटद्रव्य का अर्थ है नकली द्रव्य | जैसे कि खोटा रूपैया। नकली सोनैये में छाप होने से वह खोटा सिक्का कहा जाता है। वही यहाँ रूपशब्द से अभिप्रेत है। इसी तरह भावयतित्व से शून्य साधुवेशधारी भी नकली साधु है। उसमें साधुता न होने पर भी साधुवेश होने से वह नकली साधु कहा जाता है। वही यहाँ रूपशब्द से अभिप्रेत है। इस तरह स्थापना ओर रूप भिन्न होने से स्थापनासत्य भाषा से रूपसत्यभाषा भी भिन्न सिद्ध होती है।।२७।।
इस तरह लक्षण-दृष्टांत आदि से रूपसत्य भाषा का निरूपण पूर्ण हुआ। अब ग्रंथकार श्रीमद् क्रमप्राप्त प्रतीत्यसत्य भाषा को, जो कि व्यवहारनय अभिमत सत्यभाषा का छहाँ भेद है, २८वीं गाथा से बताते हैं।
गाथार्थ :- विलक्षण प्रतीत्यभावों को बिना विरोध के बतानेवाली भाषा प्रतीत्यसत्य भाषा कही जाती है। जैसे कि एक ही वस्तु को अपेक्षाभेद से अणु और महान कहनेवाली भाषा ।२८।
* प्रतीत्यसत्य भाषा-६ * विवरणार्थ :- भिन्न भिन्न निमित्तों के बिना जो एक ज्ञान का विषय ही न बने ऐसे भावों को विलक्षण भाव कहते हैं तथा जो पदार्थ सापेक्ष होते हैं वे प्रतीत्यभाव कहे जाते हैं। भिन्न भिन्न सम्यक् निमित्तों को बताकर विरोध का परिहार कर के जो भाषा
१ अविरोधेन विलक्षणप्रतीत्यभावानां दर्शिनी भाषा। भण्यते प्रतीत्यसत्या यथैकमणु महच्च ।।२८।। २ कप्रतौ च "देसिणी" इति पाठः।