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पनि । १२१
* विधिविशुद्धपरिणामस्य निर्जराहेतुत्वप्रतिपादनम् * यतिशब्दस्य तद्रूपवत्युपचारः। श्रामण्यव्याप्यसदालयविहारादिप्रतिसन्धानबलान्मुख्यार्थाऽबाधदशायां तादृशे . तत्पदप्रयोगे तु परमार्थतोऽसत्यभाषाप्रवृत्तावप्यसङ्कलेशपरिणामेन न कर्मबन्धः, प्रत्युत विधिविशुद्धपरिणामान्महानिर्जरैवेति ध्येयम्।।
नन्वत्र स्थापनासत्यमेवास्तु भावयतित्वबाधे स्थापनायतित्वाश्रयणस्यैव युक्तत्वादित्यत आह-स्थापना पुनर्न प्रवर्तते तज्जातीये आवश्यकनियुक्तौ आलएणं विहारेणं ठाणा चंकमणेण य। सक्को सुविहिओ नाउं भासावेणइयेण यत्ति।। (आ.नि. ११४८) तथापि मातृस्थानादितो द्रव्यलिङ्गिनि स्त्री-पशु-पण्डकवर्जितसुप्रमार्जितादिलक्षणसदालयादिसत्त्वे तत्र यतिपदप्रयोगः सत्यो न वा? कर्मबन्धकारको न वेत्याशङ्कां निराकर्तुमाह' श्रामण्ये'ति। मुख्यार्थाऽबाधदशायां = मूलगुणादिप्रतिसेवाविरहकाले, तादृशे = द्रव्यलिङ्गिनि, तत्पदप्रयोगे = यतिपदप्रयोगे। अत्र हेतुः 'श्रामण्यव्याप्यसदालयविहारादिप्रतिसन्धानबलादित्युक्त एव । परमार्थतः = निश्चयनयमाश्रित्य । असत्यभाषाप्रवृत्तावपि = मृषाभाषणेऽपि। विधिविशुद्धपरिणामादिति विपर्ययनिरासानुकूलशास्त्रोक्तसदालयविहारादिप्रतिसन्धानरूपयतनापरिणामादित्यर्थः । अयं भावः विशेषादर्शनदशायां यद्वा पुनः पनर्दर्शनादिना परीक्षायां क्रियमाणायां सत्यामपि विपर्यये सुप्रयुक्तदम्भापरिज्ञानेन सदालयविहारादिमत्त्वेन यतित्वमनुमाय द्रव्यलिङ्गिनि यतिपदप्रयोगो महानिर्जराहेतुः अशठभावात् ।
'प्रकटप्रतिषेविणि यतिपदभावार्थबाधप्रतिसन्धानात तदाकारवत्त्वाच्च स्थापनायतित्वसम्भवेन तत्र यतिपदस्य स्थापनासत्यत्वमेव, स्थापनासत्यालक्षणायातं परिहृत्य रूपसत्यत्वं वक्तुं न युज्यते, क्लुप्तस्य कल्प्याबलाधिकत्वात् इत्याशयेन पूर्वपक्षयति नन्विति। उत्तरपक्षयति स्थापनेति। अयमाशयः प्रतिमायामर्हबुद्धिः स्थापना-भावनिक्षेपा
* सदालयादि लिंग से द्रव्यलिंगी में यतिशब्दप्रयोग निर्जराजनक है * श्रामण्य. इति । यहाँ यह ख्याल रखना आवश्यक है कि साधुपना तो आत्मपरिणामरूप होने से हमें उसका साक्षात्कार नहीं हो सकता है फिर भी सदालय-विहार आदि लिंग से साधुत्व का अनुमान हो सकता है। सदालय का अर्थ है स्त्री-पशु-नपुंसक आदि से रहित वसति-स्थान | मासकल्पादि विहार आदि जिनोक्त लिंग = चिह्न से साधुत्व का अनुमान हो सकता है, क्योंकि जो भाव से साधु नहीं होता है उसमें स्त्री आदि से रहित स्थान में रहना, मासकल्प आदि शास्त्रोक्त विधि से विहार करना आदि लिंग नहीं पाये जाते हैं। अतः श्रामण्य = भावसाधुता के अविनाभावी सदालय-विहार आदि चिह्न से उस व्यक्ति में साधुत्व की अनुमिति कर के 'यह साधु है' इत्यादि निर्दोष सत्य वचनप्रयोग हो सकता है। मगर माया-कीर्तिकामना आदि से जब द्रव्यलिंगी = भावसाधुताशून्य साधुवेशधारी सदालय विहारादि में उद्यमशील रहता है तब सावद्य क्रिया आदि के अभावकाल में उसमें महाव्रत आदि की खंडितता आदि का ज्ञान न होने से सदालय आदि लिंग के ज्ञान से उस वेशधारी में 'यह साधु है' ऐसा प्रयोग किया जाय तब वह वचन परमार्थ से तो मृषा है फिर भी वक्ता को तादृश मृषावचन प्रयोग निमित्तक कोई कर्मबंध नहीं होता है, क्योंकि कर्मबंध के निमित्तभूत संक्लिष्ट परिणाम का उसमें अभाव है। बाह्य विशुद्ध आचार आदि को देख कर वेशधारी में कोई वक्ता साधुशब्द का प्रयोग करे तब उस वक्ता को संक्लिष्ट परिणाम होने का अवकाश ही कहाँ है? हाँ, यह संक्लिष्ट अध्यवसाय तब हो सकता है, जब वक्ता को यह ज्ञात हो कि - शासन हिलना से निरपेक्ष हो कर यह अनाचार का सेवन करता है फिर भी वह 'यह साधु है' ऐसा वाक्यप्रयोग करे। मगर प्रस्तुत में ऐसा नहीं है, क्योंकि वक्ता को 'यह वास्तव में साधु नहीं है' - ऐसा ज्ञान नहीं है। इतना ही नहीं उस वक्ता को द्रव्यलिंगी में शास्त्रकथित सदालय-विहार आदि साधुआचार का, जो कि साधुता के बिना कहीं पर भी नहीं रहते हैं, ज्ञान होने से विशुद्धपरिणाम से साधुपद का प्रयोग करने से वक्ता को तो महाकर्मनिर्जरा ही होती है, अल्प भी कर्मबन्ध नहीं होता है। भावसाधुत्व के ज्ञापक सम्यक् आचार के अन्वेषण में तत्परतारूप विशुद्ध परिणाम होने पर तो निर्जरा होना ही संगत है, क्योंकि कर्म का बंध या निर्जरा प्रधानतया अध्यवसाय पर अवलंबित है। - पूर्वपक्ष :- 'ननु' इति । रूपसत्य भाषा को स्थापनासत्य भाषा कहना ही युक्तिसंगत प्रतीत होता है। इसका कारण यह है कि जैसे प्रतिमा में भावजिनत्व का बाध होने पर भावजिनतुल्य आकार होने से प्रतिमा में भावजिनेश्वर की स्थापना मान्य होती है। अतएव प्रतिमा में जिनेश्वर आदि शब्द स्थापनासत्य भाषास्वरूप है। वैसे ही द्रव्यलिंगी = सिर्फ साधुवेशधारी में भावसाधुत्व का बाध होने से भावसाधुतुल्य आकार रजोहरण आदि वेश के बल से भावयति की स्थापना अर्थात् स्थापनायति मानना ही संगत है।