________________
* षड़िवधनामार्थप्रतिपादनम् *
११९ यत्तु नाम यथार्थं तत्र न नामसत्यैव किन्तु परिणामसत्यत्वम्, एवम्भूताभिप्रायेण क्रियाविरहकाले त्वतथात्वमपीत्याद्यूह्यम् ।।२६ ।। 'तत्त्वतोऽपरिमितानि लोमानि कथं नव लोमानि इत्युच्यते?
अत्राऽऽह- 'नव इति मया पूर्वमुक्तं न तु नवसंख्या'। अत्र दूषणम्- 'तद्वस्त्रं युष्माकमेवेति ज्ञातं कस्मादेतन्नवः कथ्यते'? अत्रोत्तरम् - 'मया नव इत्युक्तं किन्तु न व इति नोक्तम्' । अत्र दूषणम्- 'भवतः कायं कम्बलो वस्त इति प्रत्यक्षमेतत् कथमुच्यते न वः कम्बलः।' (उ.ह.पृ. १४-१६)।
आदाविवेति। आदिशब्दात् 'नवतन्त्रोऽयं भिषक्' इत्यादेर्ग्रहणम् । तदुक्तं चरकसंहितायां - 'यथा कश्चिद् ब्रूयात् 'नवतन्त्रोऽयं भिषक्' इति। भिषग् ब्रूयात् - 'नाऽहं नवतन्त्रः, एकतन्त्रोऽहमिति। परो ब्रूयात् - 'नाहं ब्रवीमि नव तन्त्राणि तवेति अपि तु नवाऽभ्यस्तं हि ते तन्त्रमि'ति । भिषग ब्रूयात - न मया नवाभ्यस्तं तन्त्रं अनेकधा अभ्यस्तं मया तन्त्रमिति। एतद्वाक्छलम्। (च.सं.पृ. २६६) मध्यस्थव्यवहारस्य प्रमाणत्वेन नामभाषा सत्यैवेति भावः। नाम च वैयाकरणैरपि पदार्थ इष्यते। 'घटमुच्चारयती'त्यादावर्थस्योच्चारणाऽसम्भवेन तैर्घटपदस्य घटपदार्थत्वमिष्यते 'न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते।' (वा.प. १/११५) इत्यादिवचनात् । अत एव स्वार्थ-द्रव्य-लिङ्ग-सङ्ख्याकारकरूपपञ्चप्रातिपदिकार्थतोऽपरं नाम षष्ठः प्रातिपदिकार्थः स्वीक्रियते शाब्दिकैरिति दिग्।
भावार्थविहीन एवेति पूर्वोक्तैवकारफलं प्रदर्शयति- यत्त्विति। यथाथ =अर्थमनुसृत्य प्रवृत्तम्, तत्र = यथार्थे नाम्नि । न नामसत्यैवेति नैव नामसत्यत्वमित्यर्थः कार्यः, योगार्थविरहाभावात् । परिणामसत्यत्वमिति। परिणामतः सत्यत्वं, परिणाममाश्रित्य सत्यत्वं, भावसत्यत्वमिति यावत्। यथावस्थितार्थे वर्तमानस्य नाम्नः पारमार्थिकभावविषयत्वेन सत्यभाषाऽष्टमभेदरूपभावसत्यत्वमेवेति भावः । इदं च ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरूढनयमतेन ज्ञातव्यम् । एवम्भूतनयमतमाह- एवम्भूताभिप्रायेणेति। एवं = व्युत्पत्तिनिमित्तक्रियापुरस्कारेण भूत इति एवम्भूतः, तदभिप्रायेणेति। क्रियाविरहकाले = नामव्युत्पत्तिनिमित्तक्रियाविरहकाले। अतथात्वम् = परिणामाऽसत्यत्वमेवाऽवस्तुनि वर्तमानत्वात् एवम्भूतनकरते हैं जैसे कि वाक्छल में अन्य अभिप्राय से शब्दप्रयोग होता है। आशय यह है कि - वक्ता 'इसके पास नूतन कंबल है इस अभिप्राय से 'नवकम्बलोऽयं' इस वाक्य का प्रयोग करता है। तब श्रोता वक्ता के अभिप्राय से अन्य अभिप्राय का उद्भावन कर के वक्ता के वचन को दूषित करता है कि - 'इसके पास नौ कंबल कहाँ है? सिर्फ एक ही कम्बल है।' इस को वाक्छल कहते हैं। 'नव' शब्द का संस्कृतभाषा में नूतन, नौ संख्या आदि अनेक अर्थ होते हैं। वक्ता नूतन नवीन अर्थ में 'नव' शब्द का प्रयोग करता है तब 'नौ संख्या' रूप अर्थ का बाध बताने से वक्ता का वचन असत्य सिद्ध नहीं होता है। ठीक वैसे ही 'धनवान' नाम का किसीमें संकेत होने पर उस संकेतित व्यक्ति में उस संकेत का तात्पर्य अबाधित होने से वह भाषा-नामभाषा सत्य ही होती है, असत्य नहीं। सिर्फ छल करने से सत्य वचन कभी असत्य नहीं बनता है और असत्य वचन सत्य नहीं बनता है। सोने को मिट्टी में डालने पर भी वह सोना ही रहता है, मिट्टी नहीं बनता। मज़ाक उडाना, छल करना आदि सिर्फ मोहरूपी नट का नाच कराने का अनूठा प्रकार है, जिससे जीव भवभ्रमण करते रहते हैं।
* यथार्थ नाम परिणामसत्य है * यत्तु. इति । यहाँ एक बात ज्ञातव्य है कि - जब नाम यथार्थ होता है तब वह नाम नामसत्य नहीं होता है, किन्तु परिणामसत्य होता है। आशय यह है कि - जब किसी धनिक का ही नाम धनवान रखा जाय तब वह धनिक 'यथा नाम तथा गुण' होने से वह नाम सार्थक होता है। अतएव वह नाम नामसत्य नहीं है, क्योंकि धनिक में धनवानशब्द के योगार्थ धनिकपना का बाध नहीं है। अतएव परिणामतः सत्य है। हाँ जब एवंभूतनय की दृष्टि से विचार किया जाय तब वस्तु में शब्द की व्युत्पत्तिनिमित्तभूत क्रिया विद्यमान होने पर ही शब्द परिणामसत्य होता है। जब वस्तु में शब्द की व्युत्पत्तिनिमित्तभूत क्रिया नहीं होती है उस काल में वह शब्द परिणामसत्य नहीं कहलाता है, क्योंकि एवंभूतनय की दृष्टि से क्रिया के अभाव काल में विवक्षितपदवाच्यरूप से वह वस्तु ही नहीं होती है। अतः क्रियाविरह काल में अवस्तु में प्रवर्तमान होने पर वह भाषा परिणामसत्य नहीं होती है। इस तरह इस विषय