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* उपाध्यसाङ्कर्यप्रकाशनम् *
अथ सम्मतसत्यालक्षणाक्रान्तैवेयमिति चेत्? न, उपधेयसाङ्कर्येऽप्युपाध्योरसाङ्कर्यात् ।।२५।। उक्ता स्थापनासत्या। अथ नामसत्यामाहभावत्थविहूणच्चिय, णामाभिप्पायलद्धपसरा जा। सा होइ णामसच्चा, जह धणरहिओवि धणवंतो।।२६।। स्थापनायां निरूढलक्षणास्वीकारे कश्चिच्छङ्कते-अथेति। सम्मतसत्यालक्षणाक्रान्तैवेति सम्मतसत्यैवेति । यथा सम्मतसत्याभाषाऽन्यत्रावयवार्थसत्त्वेऽपि रूढ्यर्थमेव बोधयति तथैव रागादीन् जयतीति व्युत्पत्त्या भावजिनेऽवयवार्थसत्त्वेऽपि स्थापनाजिनरूपरूढ्यर्थं स्थापनाभाषा बोधयतीति रूढ्यर्थे प्रवर्तनात् स्थापनासत्याभाषा सम्मतसत्यभाषैवेति अथशङ्काकारस्याऽऽशयः।
तन्निराकरोति 'ने'ति। उपधेयसाङ्कर्येऽप्युपाध्योरसाङ्कर्यादिति। अयं भावः यथा नरत्वसिंहत्वयोरेकस्मिन्नरसिंहे वृत्तित्वेन नरत्ववतः सिंहत्ववतश्चैक्येनोपधेयसाङ्कर्येऽपि नरवसिंहत्वरूपोपध्योरैक्याभावेन न साङ्कर्यम् यद्वा यथा दण्डादेर्द्रव्यत्वादिनाऽन्यथासिद्धत्वं दण्डत्वादिना च हेतुत्वमित्येकस्मिन्नेव दण्डादावन्यथासिद्धत्वानन्यथासिद्धत्वयोः वृत्तित्वेनाऽन्यथासिद्धत्ववतो हेतुत्ववतश्चैक्येनोपधेययोः साङ्कर्येऽप्यन्यथासिद्धत्व-हेतुत्वरूपोपाध्योावर्त्तकधर्मयोर्न साकर्यम् तथैवाऽत्र सम्मतसत्यात्वस्थापनासत्यात्वरूपोपाध्यालिङ्गितयोः सम्मतसत्या-स्थापनासत्यारूपोपधेययो रूढ्यर्थे वर्तमानत्वेन साकर्येऽपि = रूढ्यर्थप्रतिपादकत्वापेक्षयैक्येऽपि न सम्मतसत्यत्व-स्थापनासत्यत्वरूपोपाध्योः प्रवृत्तिनिमित्तयोः साङ्कर्यं = ऐक्यम्, सम्मतसत्यत्वस्य योगार्थसंवलितस्थापनाभिन्नरूढ्यर्थपरत्वात्, स्थापनासत्यत्वस्य योगार्थविमुक्तस्थापनारूपरूढ्यर्थपरत्वात। एतावतोपाध्योः सम्मतसत्यत्व-स्थापनासत्यत्वयोर स्वरूपतोपपादिता भवति।
यत्र भेदप्रतीतिनिमित्तं नास्ति तत्रैवोपधेयगतसाङ्कर्यदोषो भवति । अत्र तूपधेयगतभेदप्रतीतिनिमित्तं भिन्नोपाधिद्वयं वर्तते। अतो न कोऽपि दोषावकाशः। एतेन सत्यभाषाविभाजकोपाधीनां परस्परसामानाधिकरण्यरूपाऽऽधिक्यदोषोऽपि प्रत्युक्तो भवतीतिदिक् ।।२५।। मालुम नहीं है कि - सम्मतसत्यभाषा और स्थापनासत्यभाषा दोनों भले ही रूढ्यर्थ में प्रवर्तमान हो, मगर यह तो उपधेय का सांकर्य हुआ अर्थात् रूढि अर्थ में प्रर्वतकत्व होने की अपेक्षा सम्मतसत्यत्व और स्थापनासत्यत्वरूप उपाधियों से उपहित युक्त ऐसी उपधेयभूत सम्मतसत्यभाषा और स्थापनासत्यभाषा में ऐक्य हुआ। मगर इतने से हि सम्मतसत्यत्व और स्थापनासत्यत्वरूप दो उपाधिओं में सांकर्य=ऐक्य नहीं हो सकता है। सम्मतसत्यभाषात्व और स्थापनासत्यभाषात्व-रूप दो उपाधि तो ठीक उसी तरह भिन्न=असंकिर्ण हैं जैसे कि दंड में रहा हुआ द्रव्यत्व और दंडत्व । आशय यह है कि सम्मतसत्य भाषा तो योगार्थ से संवलित और स्थापना से भिन्न रूढ अर्थ में प्रवृत्त होती है जब कि स्थापना तो योगार्थ से शून्य ऐसे स्थापनारूप रूढ अर्थ में प्रवृत्त होती है। स्पष्ट ही है कि सम्मतसत्यभाषात्व और स्थापनासत्यभाषात्व दो उपाधियाँ अपने भिन्न भिन्न लक्षण से ही असंकीर्ण हैं, चाहे दोनों रूढ अर्थ में प्रवृत्त भाषा में क्यों न रहती हो? इस तरह स्थापना में पद की निरूढलक्षणा मानने में भी कोई दोष नहीं है - यह सिद्ध हुआ।।२५।। अब ग्रंथकार, स्थापनासत्य भाषा का निरूपण समाप्त हो जाने से सत्यभाषा के चतुर्थ भेद नामसत्य भाषा को, जो कि उद्देश क्रम से प्राप्त है, बताते हैं।
गाथार्थ :- नाम के अभिप्राय से ही जो भाषा भावार्थरहित में ही प्रवृत्त होती है, वह भाषा नामसत्य भाषा है। जैसे कि धनरहित भी नाम से धनवान कहा जाता है।२६ ।
* नामसत्यभाषा -४* विवरणार्थ :- नामसत्य भाषा वह होती है, जो नाम संकेतमात्र के बल से योगार्थ = भावार्थ = अवयवार्थ के अभाव का ज्ञान
१ भावार्थविहीन एव नामाभिप्रायलब्धप्रसरा या। सा भवति नामसत्या यथा धनरहितोऽपि धनवान् ।।२६।।