________________
११८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. २६
० छलभाषानिरूपणम् ० भावार्थविहीन एव या भाषा नामाभिप्रायलब्धप्रसरा "नामसङ्केतमात्रादेव योगार्थबाधमवगणय्य स्वप्रतिपाद्यं प्रतिपादयतीति यावत्", सा भवति नामसत्या यथा धनरहितोऽपि नाम्ना धनवानिति।
हन्त! यदीयं सत्या कथं तर्हि तत उपहास इति चेत्? मध्यस्थानां न कथञ्चित्, अन्येषां तु नवकम्बलोऽयमित्यादाविवाभिप्रायान्तरावलम्बनेन वाक्छलादिति गृहाण, विचित्रो हि महामोहशैलूषस्य नर्तनप्रकार इति । ___ भावार्थविहीन एवेति । एवकारेण भावार्थयुक्ते प्रवर्तमानाया भाषाया नामसत्यत्वव्यवच्छेदः कृतः। तदुक्तं विशेषावश्यकभाष्ये-'पज्जायाऽणभिधेयं ठियमन्नत्थे तयत्थनिरवेक्खं । जाइच्छियं च नाम जावद्दव्वं च पाएण।' (वि. आ.) स्वप्रतिपाद्यमिति। स्वपदेन नामसत्यभाषा ग्राह्या। तस्याः प्रतिपाद्यं द्विविधं क्वचिद् योगार्थशून्यवस्तूपाधिकं नाम क्वचिन्नामोपाधिकं योगार्थशून्यं वस्तु। यदा योगार्थशून्यवस्तुविशेष्यकनामप्रकारकशाब्दबोधो जायेत तदा तत्र वस्तुनि नामोपाधिकैव शक्तिः तादृशसङ्केताऽभिव्यङ्ग्या। यदा च नामविशेष्यकभावार्थशून्यवस्तुप्रकारकशाब्दबोधो जायेत तदा नाम्न्येव शक्तिः स्वीकर्तव्या। प्रथमे नाम्नः शक्यतावच्छेदकत्वम् द्वितीये च विकल्पे नाम्नः शक्यत्वम्। तथा च भावार्थबाधप्रतिसन्धानदशायां नामसङ्केतमात्रबलात् शक्यत्व-शक्यतावच्छेदकत्वान्यतररूपेण नामविषयकशाब्दबोधजनकत्वं नामसत्यत्वमिति फलितम् । एवं च न स्थापनासत्यादावतिव्याप्तिरिति भावनीयम् । - जिनदासगणिमहत्तरकृतचूर्णौ तु 'नामसच्चं नाम जं जीवस्स अजीवस्स वा 'सच्चं' इति नाम कीरइ, जहा सच्चो नाम कोइ साहू एवमादि' इत्युक्तमिति ध्येयम् । ___ अन्येषां = अमध्यस्थानाम्। तुर्विशेषताप्रदर्शनार्थम्। वाक्छलादिति। तदुक्तं गौतमीयन्यायसूत्रे 'अविशेषाभिहितेऽर्थे वक्तुरभिप्रायादर्थान्तरकल्पना वाक्छलम्' (न्या.सू. १/२/११) ननु 'नवकम्बलोऽयमित्यत्र कथं वाक्छलं भवेत्? उच्यते नव इति चतुर्विधम् = नवः, नव, न वः, न व इति। तदुक्तं उपायहृदये' कश्चिदाह-'यो मया परिहितः स नवकम्बलः। अत्र दूषणं वदेत् - 'यद्भवता परिहितं तदेकमेव वस्त्रं कथं नवेति? अत्र प्रतिवदेत् - 'मया नव इत्युक्तं तथा च नवः कम्बलः न तु नवेति' । अत्र दूषयेत् 'कथं नवः ? 'नवलोमनिर्मितत्वान्नव' इत्युक्ते प्रतिवादी वदेत्होने पर भी योगार्थ से शून्य में प्रवृत्त हो कर अपने विषय का बोध कराती हो। जैसे कि किसीका, जिसके पास फूटी कोडी भी नहीं है, नाम धनवान रखा गया हो तब धनवान शब्द से श्रोता को उस धनहीन मनुष्य का बोध होता ही है यदि श्रोता ने धनवान नाम का संकेत उस धनहीन व्यक्ति में गृहीत किया हो। धनवान शब्द से उस मनुष्य का ज्ञान होने के लिए-'उसके पास धन है' ऐसा ज्ञान आवश्यक नहीं है, आवश्यक है सिर्फ धनवान नाम के संकेत का धनहीन आदमी में ग्रहण ज्ञान । यह बात सब लोगों को अनुभवसिद्ध ही है। इसलिए इसके विषय में ज्यादा चर्चा आवश्यक नहीं है।
शंका :- यदि धनहीन में धनवानशब्द सत्य ही है तब लोग उस दरिद्र का 'देखो, बडा धनवान आया! ऐसा बोल कर मजाक क्यों उडाते हैं? लोग व्युत्पत्त्यर्थशून्य संकेतित अर्थ में उपहास करने की वृत्ति से उन उन शब्दों का प्रयोग करते हैं। अतएव यह ज्ञात होता है कि नामभाषा सत्य नहीं है, मृषा है। यदि भाषा सत्य हो तो उपहास क्यों और उपहास हो तब उस भाषा में सत्यत्व कैसे?
* मध्यस्थ पुरुषों के व्यवहार के बल से नामभाषा सत्य * समाधान :- मध्यस्थानां. इति । लोग दो प्रकार के होते हैं। एक प्रकार है शिष्ट लोग यानी मध्यस्थ लोग और दूसरा प्रकार है अशिष्ट लोग यानी अमध्यस्थ लोग। शिष्टपुरुषों जिस भिखारी का नाम धनवान रखा गया है उसको मजाक की दृष्टि से 'धनवान' शब्द से नहीं पुकारते हैं, किन्तु मध्यस्थभाव से धनवान शब्द से बुलाते हैं। वस्तु के स्वरूप का निर्णय शिष्ट पुरुषों के व्यवहार से होता है। शिष्टपुरुषों की प्रवृत्ति से ही यह सिद्ध होता है कि नामभाषा सत्यभाषा है, मृषा नहीं। अशिष्ट पुरुषों की तो बात ही अलग है। वे तो जिस दरिद्र का नाम धनवान रखा गया है, उसके लिए धनवानशब्द का ठीक उसी अभिप्राय से प्रयोग
१ मुद्रितप्रतौ "विहीना एव" इति अशुद्धः पाठः।