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१२२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. २७
० सदोषे स्थापनाया असम्भवः ० सदोषे च। स्थापना हि तज्जातीयभिन्ने दोषरहिते च प्रवर्त्तते न त्वन्यत्र, तत्र तथाविधाभिप्रायाभावात् । तदिदमुक्तं-'उभयमवि अत्थि लिंगे ण य पडिमासूभयं अत्थित्ति। (आ.नि. ११३५) यथा चैतत्तत्त्वं तथा प्रपञ्चितमध्यात्ममतपरीक्षायाम्। भेदाध्यवसायपर्यवसायिनो प्रतिष्ठादिरूपां योग्यतामपेक्षते। सा च योग्यता तज्जातीये=भावार्हत्सजातीये भावार्हदन्तरे नास्ति प्रयोजनविरहात् नाऽपि सदोषे तादृशी योग्यताऽस्ति, विपर्यासरूपत्वात् । ततः तत्सजातीय-सदोषविषयकयतिशब्दे अन्यत्र क्लृप्तस्थापनासत्यत्वं घटां नाञ्चतीति तत्र रूपसत्यत्वमेव युज्यते। न च गौरवं, प्रामाणिकत्वात् । एतेनाऽऽधिक्यदोषोऽपि प्रत्युक्तः सत्यभाषाविभाज्यतावच्छेदकानां परस्परसामानाधिकरण्यविरहात ।
तत्र = सदोषे तथाविधाभिप्रायाऽभावादिति। प्रवचनहीलनासावधक्रियादिरूपदोषप्रतिसन्धानदशायां भावनिक्षेपरूपयोग्याऽभेदाध्यारोपाविषयत्वेन स्थापनास्थाप्याऽभेदाध्यवसायफलकाभिप्रायविरहान्न स्थापनाप्रवृत्तिरिति भावः । अत्र भद्रबाहुस्वामिवचनसंवादमाह-उभयमवित्ति। सावद्यकर्म निरवद्यकर्म चेत्यर्थः। लिंगेत्ति। तद्वति तदुपचारात् लिङ्गिनीत्यर्थः। ण य पडिमासूभयं अत्थित्ति। प्रतिमायां निरवद्यकर्मादिरूपगुणाभावेन तज्जातीयत्वाभावः सावद्यकर्माभावेन च सदोषत्वाभावः प्रदर्शितः । अत्र च प्रयोगा एवम् - प्रतिमायां जिनादिपदं स्थापनासत्यं सावद्यकर्मशून्यप्रतिष्ठादिगुणान्वितवस्तुविषयकत्वात्। प्रकटप्रतिषेविणि यतिपदं न स्थापनासत्यं यतिजातीयसावद्यकर्मयुक्तवस्तुविषयकत्वात्। प्रपञ्चितमिति । 'सिद्धि णिच्छयओ च्चिय' इत्यादिगाथया अध्यात्ममतपरीक्षायां विवेचितम्। सुस्पष्टं चैतत्तत्त्वं गुरुतत्त्वविनिश्चये ‘ण य ठवणा वि पवट्टइ तज्जातीए तहा सदोसे य' (गु.वि. ३/१८२) इत्यस्य वृत्तौ प्रकृतप्रकरणकारेणोपपादितं ततोऽवगन्तव्यम् । अतएव पासत्था आदि द्रव्यसाधु में साधु आदि शब्द स्थापनासत्य भाषा स्वरूप ही है, न की रूपसत्य भाषा स्वरूप। अतः स्थापनासत्य भाषा से अतिरिक्त रूपसत्य भाषा की कल्पना अप्रामाणिक है।
* स्थापनासत्य भाषा से रूपसत्य भाषा भिन्न है * उत्तरपक्ष :- स्थापना. इति । ओ! मिस्टर! तुम्हारी जबान पर लगाम नहीं है। जरा सोचो तो सही, रूपसत्य और स्थापनासत्य में आकाश-पाताल का अंतर है। रूपसत्य भाषा का विषय है तज्जातीय और सदोष वस्तु जब कि स्थापनासत्य भाषा का विषय है तज्जातीयभिन्न और निर्दोष वस्तु । स्थापना कभी भी तज्जातीय और सदोष विषय में प्रवृत्त नहीं होती है। आशय यह है कि भावनिक्षेप से विजातीय और निर्दोष वस्तु में ही स्थापना होती है। जो वस्तु भावनिक्षेपसजातीय होती है वहाँ तो स्थापना होती ही नहीं है, क्योंकि वहाँ स्थापना का कोई प्रयोजन ही नहीं है। जहाँ पर वस्तु स्वयं ही भावनिक्षेप सजातीय हो वहाँ भावनिक्षेप की स्थापना का क्या प्रयोजन है? लोग अपने पिताजी की तस्वीर में पिताजी की स्थापना करते हैं। अपने जीवंत पिता में कोई अपने पिताजी की स्थापना करता हुआ कहीं पर भी देखा या सूना नहीं है। वैसे स्थापना सदोष वस्तु में प्रवृत्त नहीं होती है, क्योंकि सदोष वस्तु में दोषज्ञान से भावनिक्षेप का अध्यारोप न होने से भावनिक्षेप के अभेद = तादात्म्य के अध्यवसाय का जनक अभिप्राय कथमपि संभव नहीं है। सजातीय-सदोष विषय में स्थापना ही असंभव है तब सजातीय-सदोष विषय में प्रवृत्त भाषा स्थापनासत्य भी कैसे हो सकती है? अतः मानना होगा कि सजातीय-सदोष विषय में जो भाषा प्रवृत्त होती है वह स्थापनासत्य भाषा से अतिरिक्त रूपसत्य भाषा ही है।
शंका :- स्थापना भावनिक्षेपसजातीय और सदोष वस्तु में नहीं होती है - ऐसा कहना कैसे संभव है? हम तो कहते हैं कि - विजातीय और निर्दोष वस्तु की तरह सजातीय और सदोष वस्तु में भी स्थापना प्रवृत्त हो सकती है - तब आपके पास इसका क्या जवाब है?
____* विजातीय और निर्दोष चीज में ही स्थापना होती है * समाधान :- तदिदमुक्तम. इति। हम जो कहते हैं उसे तुम पत्थर की लकीर समझो, क्योंकि हम शास्त्रपाठ के बिना किसी बात का निर्णय या प्ररूपण अपने मन की कल्पना से नहीं करते हैं। सजातीय और सदोष विषय में स्थापना प्रवृत्त नहीं होती है
१ उभयमप्यस्ति लिङ्गे नच प्रतिमासूभयमस्ति ।। २ अस्याः पूर्वार्द्ध एवं - जइ वि अ पडिमाउ जहा मुणिगुणसंकप्पकारणं लिंग।।