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* स्थापनात्वावच्छिन्ने पदशक्यत्वम् *
सकलगोसमवेतत्वरूपम् । तथा च गोव्यक्तीनां शक्यतावच्छेदके प्रवेशात्तवैव गौरवात् । तस्मात् शक्तित्रितयकल्पनैव युक्ता तव मतेऽपीति दिक् ।
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ननु गौतमीयानुशासनेनाऽपि सद्भूतस्थापनायामेव शक्तिः स्यान्न त्वसद्भूतस्थापनायामित्याशङ्कां दूरीकरोति निक्षेपानुशासनस्येति । स्थापनायामपीति । स्थापनात्वाऽवच्छिन्नेऽपीत्यर्थः । एवं च नासद्भूतस्थापनायामव्यापकतेति ।
ननु जत्थ वि य न जाणिज्जा, चउक्कयं णिक्खिवे तत्थ । इत्यनेन निक्षेपानुशासनेन यत्तत्पदाभ्यां निक्षेपचतुष्टयस्य व्याप्तिः स्फुटीकृता तथापि अनभिलाप्यभावेषु नामनिक्षेपाऽप्रवृत्तेः, द्रव्यजीवद्रव्यद्रव्याद्यसिद्ध्याऽभिलाप्यभावैकदेशे द्रव्यनिक्षेपाऽप्रवृत्तेश्च, व्यभिचार इति कथं निक्षेपचतुष्टये पदशक्तिरित्याशङ्कां निराकर्तुमाह 'असति बाधक' इत्येवमवतरणिका न कार्या, प्रकृतस्थापनानिक्षेपेऽनुपयोगित्वेन 'तत्रापी'त्यनेनाऽन्वयाऽनुपपत्तेः, अनुपदमेव वक्ष्यमाणस्थापनाविषयककल्पान्तराऽलग्नताऽऽपत्तेश्च । किन्तु " नन्वेवं सति पार्श्वस्थादौ भावयतिस्थापनासम्भवेन तत्र यतिशब्दस्य स्थापनासत्यत्वं प्रसज्येत । तथा सति चाऽऽवश्यकनिर्युक्त्यादिग्रन्थविरोधः स्यादित्याशङ्कां निराकर्तुमाह- 'असति बाधक इति । इत्येवमवतरणिका कार्या । आनुशासनिकशक्तेः बाधकं च दोषादिप्रतिसन्धानम् । प्रकटप्रतिसेविनि दोषादिप्रतिसन्धानरूपबाधकस्य सत्त्वे तत्र भावयतित्वारोपस्य दुःशकत्वेन न तत्र यतिपदस्य स्थापनासत्यत्वम्। तदुक्तं भद्रबाहुस्वामिना 'अगुणे उ वियाणंतो कं नमउ मणे गुणं काउं ? ( आ.नि. ११३६) प्रतिमास्थले च लोहादिधातुनिर्मितत्व-ध्यानस्थ-नाग्न्याद्यवस्था-मुखाद्यवयभङ्गादिकं दोषः मुह-नक्कनयण-नाहिकडिभंगे मूलनायगं चयह।' ( ) इत्यादिशास्त्रवचनात् । प्राणप्रतिष्ठादिसम्पादितस्थापनायां शास्त्रोक्तदोषादिप्रतिसन्धाने सति निक्षेपानुशासनप्राप्तशक्तिः नास्ति, प्राणप्रतिष्ठाद्यसम्पादितलौकिकस्थापनायां तु लौकिकशक्तेर्मुखभङ्गादिकं न बाधकमिति ध्येयम् ।
ननु दोषादिप्रतिसन्धानदशायां स्थापनायां न शक्तिः, इतरथा त्वस्तीति वक्तुं कथं शक्यते ? यदि स्थापनायां पदशक्तिः तदा श्रोतुर्वक्तुर्द्रष्टुर्वा दोषादिप्रतिसन्धानरूपबाधके सत्यपि त्रिदशाधिपतिनाऽपि सा पश्चात्कर्तु न शक्यते, अन्यथा शक्तिमहासत्या व्याकोपः प्रसज्येत । यदि स्थापनायां न शक्तिः तदा बाधकाभावदशायामपि तत्र शक्तिः न सिर्फ सद्भूतस्थापना में ही शब्दशक्ति की सिध्धि होगी न कि असद्भूतस्थापना में। जब कि आपकी अभिमत स्थापना सत्याभाषा तो सद्भूतस्थापना की तरह असद्भूतस्थापना में भी प्रवृत्त होती है। असद्भूतस्थापना में आप कैसे शब्दशक्ति की सिद्धि करोगे? तथा असद्भूतस्थापना में स्थापनाभाषा भी कैसे सत्य बनेगी ? - निराकरण इसलिए हो जाता है कि- 'असद्भूतस्थापना में भले गौतमीय अनुशासन शब्दशक्ति का समर्थन न करे, मगर निक्षेप अनुशासन तो सद्भूतस्थापना की तरह असद्भूतस्थापना में भी शब्दशक्ति की समानरूप से सिद्धि करता ही है। 'जत्थ वि न जाणिज्जा' इत्यादि पूर्वोक्त श्रीभद्रबाहुस्वामीजी का निक्षेप अनुशासन सर्व प्रकार की स्थापना में समानरूप से पदशक्ति का समर्थन करता है। अतः सद्भूतस्थापना और असद्भूतस्थापना में शब्दशक्ति समान होने से, उन दोनों में प्रवर्त्तमान स्थापनाभाषा सत्य ही है, असत्य नहीं ।
* बाधक न होने पर स्थापना में भी शक्ति है *
असति. इति । यहाँ इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि - जहाँ जिसकी स्थापना करनी हो वहाँ दोष आदि की उपस्थिति हो तब वहाँ स्थापना नहीं हो सकती है। जैसे कि प्रतिमा के मुँह-गला - नाक आदि खंडित हो गये हो तब उस प्रतिमा में जिनेश्वर की स्थापना नहीं हो सकती है। जिनेश्वरपद की शक्ति दूषित खंडित आदि स्थापना में नहीं होती है। मगर जहाँ कोई बाधक नहीं है वहाँ जिनेश्वर की स्थापना हो सकती है। वहाँ जिनेश्वर पद की शक्ति रहती ही है - इसमें कोई विवाद नहीं है। आशय यह है कि खंडित मूर्ति आदि में लौकिकदृष्टि से स्थापना होने पर भी आनुशासनिक शक्ति वहाँ नहीं है, क्योंकि अनुशासनप्राप्त शक्ति का विरोधी=बाधक वहाँ विद्यमान है। जहाँ प्राणप्रतिष्ठा आदि नहीं होते हैं; सिर्फ मनुष्यादि का आकार ही होता है जैसे महात्मा गांधीजी की स्थापना=मूर्ति; वहाँ हस्तादि खंडित होने पर भी लौकिकदृष्टि से शक्ति मानने में कोई विरोध प्रतीत नहीं होता है। इस विषय में विद्वान् लोग अधिक विचार कर सकते हैं।