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* शब्दस्य नाम-जात्याकृति वाचकत्वसमर्थनम् *
सद्भावस्थापनायां च शक्तिः 'व्यक्त्याकृतिजातयः पदार्थ' (न्या. सू. २२।६८) इति वदतां गौतमीयादीनामप्याभिमता। न च गवादिपदानां लाघवाद्गोत्वविशिष्ट एव शक्तिः, आकृत्यादौ तु लक्षणैव, सूत्रं त्वन्याभिप्रायकमिति वाच्यम्, चित्रपिष्टमयं कञ्चिद, गां हि नयति बुद्धिमान ।।' इत्येवं प्रतिविधीयते। यच्च परैः 'व्यक्तौ तावत्क्रियायोगो जातौ सम्बन्धसौष्ठवम्। नाकृतौ द्वयमप्येतदिति तद्वाच्यता कुतः?।।' इत्युच्यते, तत्र मया "व्यक्तौ तावत्क्रियायोगो, जातौ सम्बन्धसौष्ठवम् । आकृतौ द्वयमप्येतदिति तद्वाच्यता स्फुटा।।" इत्येवं समाधीयते। 'जिनं स्नपय', 'रक्ताः पिष्टमय्यो गावः क्रियन्तामि'त्यादिप्रयोगदर्शनात्, सङ्केतसम्बन्धग्रहणे बाधकाभावाच्च ।
अत एव "आकृतिवचनत्वे गोशब्दस्य शुक्लादिगुणवाचिभिः पदान्तरैः सामानाधिकरण्यं न प्राप्नोति। न हि शुक्लादिगुणा आकृतिवृत्तय इत्यपि प्रत्युक्तम्: लोकोऽपि "आकृतौ सर्वे गुणा वसन्ति" इति व्यपदिशति । __'गवादिपदानामि ति। ननु यद्धर्मेण यदर्थे यत्पदस्य शक्तिग्रहः, लाघवात् तद्धर्मविशिष्ट एव तत्पदस्य शक्तिरिति नियमात्, गोत्वादिधर्मेण गवादिरूपार्थे गोत्वाद्यवच्छिन्ने गवादिपदस्य शक्तिः, न त्वाकृत्यादौ गौरवात् । अन्वयाद्यनुपपत्तिमहिम्ना तत्र लक्षणैवोचिता। न च व्यक्त्याकृतिजातयः पदार्थ' इति सूत्रापलापः, तेनाऽऽकृत्यादौ पदार्थत्वप्रतिपादनेन तत्र शक्तिसमर्थनादिति वाच्यम् तत्सूत्रस्याऽभिप्रायान्तरोन्नयनादित्याशङ्काकर्तुरभिप्रायं निरस्यति करना आवश्यक है और उसके लिए अरिहंत भाषित आगमों का अपलाप भी त्याज्य है। इस विषय का विस्तार विवरणकार अन्य ग्रन्थों में कर चुके हैं।
* सद्भावस्थापना में भी शक्ति है - नैयायिक की साख * सद्भावस्थापनायां. इति। दूसरी बात तो यह है कि सिर्फ जिनागम में ही यह नहीं कहा गया है कि - सद्भूतस्थापना में पदमात्र की शक्ति है - किन्तु नैयायिक संप्रदाय के गौतमऋषिकृत न्यायसूत्र में भी आकृति में यानी सद्भूतस्थापना में शक्ति का प्रतिपादन किया गया है। देखिये, यह रहा वह न्यायसूत्र - 'व्यक्त्याकृतिजातयः पदार्थः' अर्थात् ‘पद का अर्थ-व्यक्ति, आकृति और जाति है। आकृति भी पद का अर्थ है यानी पद का शक्यार्थ है - यह ज्ञात होता है। गौतममहर्षि को अभिमत आकृति सद्भावस्थापना को छोड कर अन्य कुछ नहीं है। सद्भावस्थापना ही आकृति है। अतः गौतमीय न्यायसूत्र से भी सद्भावस्थापना में पद की शक्ति सिद्ध होती है।
* लाघवतर्क से गोत्वविशिष्ट में ही शक्ति है - नव्य नैयायिक * पूर्वपक्ष :- गवादिपदानां. इति । आकृति आदि में यानी सद्भावस्थापना में शक्ति को मानना कैसे उचित होगा? क्योंकि आकृति
क मानने पर शक्यतावच्छेदक धर्म में गौरव होगा। अतः आकति आदि में पद की लक्षणा माननी ही उचित है। आशय यह है कि - जिस धर्म से विशिष्ट जिस धर्मी का जिस शब्द से शाब्दबोध होता है उस धर्म से विशिष्ट व्यक्ति में ही उस पद की शक्ति होती है। गोत्व धर्म से गायस्वरूप धर्मी का गोशब्द से भान होता है। अतः गोत्वविशिष्ट गोव्यक्ति में ही गोपद की शक्ति मानना उचित है, न कि आकृति आदि में, क्योंकि गोपद से गाय की आकृति आदि का भान नहीं होता है। शब्द से जिसका भान न हो उसमें शब्द की शक्ति मानना कैसे उचित होगा? अतः आकृति आदि अर्थ में तो लक्षणा का स्वीकार ही उचित है, न कि शक्ति का स्वीकार।
सुत्रं. इति । यहाँ यह शंका होने का अवकाश है कि - 'यदि आकृति में शक्ति नहीं है तब 'व्यक्ति-आकृति-जातयः पदार्थः' इस गौतमीयसूत्र का विरोध होगा, क्योंकि यहाँ सूत्र में तो कंठतः आकृति में पद की शक्ति का प्रतिपादन किया गया है - किन्तु यह शंका इसलिए निराधार है कि - उस गौतमीयसूत्र की अन्य अभिप्राय से उपपत्ति हो सकती है। आशय यह है कि - शास्त्र के सूत्रों का जब व्याख्यान करना हो तब प्रत्यक्ष अनुमान आदि अन्य प्रमाण से बाध न हो यह ध्यान रखना आवश्यक है। शब्दार्थ मात्र में