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१०६ भाषारहस्यप्रकरणे
स्त. १. गा. २४
• वृषभदेववचननिवरासः O न चेयं तत्तद्देश एव सत्या, न तु शास्त्रेऽपि शक्तशब्दान्तरमध्यपतिताऽपीति वाच्यम् अविप्रतिपत्त्याऽदुष्टविवक्षाहेतुत्वेनाऽन्यत्राऽपि तस्याः सत्यत्वात्, अन्यथा देशीयशब्देन कुत्राऽप्यन्वयाऽनुपपत्तिप्रसङ्गात् । । २३ । ।
उक्ता जनपदसत्या । अथ सम्मतसत्यां निरूपयति
णाइक्कमित्तु रूढिं जा जोगत्थेण णिच्छयं कुणइ । सम्मयसच्चा एसा, पंकयभासा जहा पउमे । ।२४ ।। पद्यते। व्याकरणस्योपजीवकत्वेन दुर्बलत्वान्न तेन प्रसिद्धापभ्रंशशब्दनिष्ठशक्तिमहासती कलङ्किता कर्तुं शक्या ।
भर्तृहरिमतं खण्डयितुमुपक्रमते 'न चे 'ति । अन्यत्रापीति । शास्त्रेऽपि शक्तशब्दान्तरसंकीर्णस्थलेऽपीत्यर्थः । अयं भावः, यथा तत्तज्जनपदेष्विष्टार्थप्रतिपत्तिजनकत्वात्, अदुष्टविवक्षाहेतुत्वात्, व्यवहारप्रवर्तकत्वात्, तत्तद्देशेऽपभ्रंशानां सत्यत्वं तथैव शास्त्रे शक्तशब्दान्तरसंकीर्णस्थलेऽपि तस्याः सत्यत्वाऽप्रत्यूहात् । एतेन संकीर्णायां वाचि साधुविषयेऽपशब्दाः प्रयुज्यन्ते । तैः शिष्टा लक्षणविदः साधून् प्रतिपद्यन्ते ।" ( वाक्यपदीय १/१४४ वृ. दे. वृत्ति) इति वृषभदेववचनं निरस्तम् अप्रामाणिककल्पनागौरवात्, अपभ्रंशेऽपि संकेतसद्भावात् व्यवहारादिना संकेतग्रहबाधकाभावात् । एतेन प्राकृताऽर्धमागधीभाषानिबद्धा आगमा न प्रमाणमिति प्रलापः पलायितः इष्टार्थप्रतिपतिजनकत्वात्, अविसंवादित्वाच्च ।
विपक्षे बाधकतर्कमाह-अन्यथेति । अपभ्रंशशब्दे सङ्केतसत्यत्वाऽनङ्गीकारे । कुत्राऽपि पदार्थेऽन्वेयानुपपत्तिप्रसङ्गात्, अशक्तपदानां पदार्थानुपस्थापकत्वादिति भावः । । २३ ।।
सम्मतसत्यां निरूपयति । द्वितीयार्थो विषयत्वरूपं कर्मत्वं, तस्य निरूपकत्वसम्बन्धेन ज्ञानानुकूलव्यापारात्मकहै और निर्दोष विवक्षा=वक्ता के अभिप्राय से वह भाषा उत्पन्न होती है। अतएव जनपद भाषा को उन उन देशों में सत्य कही जाती है। यह हेतु तो शास्त्र में प्रयुक्त अपभ्रंश - प्राकृत- अर्धमागधी आदि भाषा में भी निर्विवादरूप से सिद्ध है, क्योंकि शास्त्र में प्रयुक्त अर्धमागधी आदि भाषा से उस भाषा के अभ्यासियों को, जिन्हें अर्धमागधी आदि अपभ्रंश भाषा के संकेतों का ज्ञान है, अर्थबोध होने में कोई विवाद नहीं है। तथा शास्त्र में प्रयुक्त अर्धमागधी आदि अपभ्रंश भाषा के प्रयोग में तीर्थंकर - गणधर आदि भगवंतों की कोई दुष्ट विवक्षा = अभिलाषा नहीं होती है। इसलिए वह भाषा सत्य ही है। इस तरह जहाँ संस्कृत शब्दों के साथ साथ जो प्राकृत आदि अपभ्रंश शब्द आते हैं; जैसे की भरतेसरबाहुबली वृत्ति, सम्यक्त्वसप्ततिवृत्ति, पंचशतीप्रबोध आदि शास्त्र; वे प्राकृत आदि अपभ्रंश शब्द भी सत्य ही होते हैं, क्योंकि उनसे संकेतज्ञ पुरुषों को अर्थबोध होने में कोई विवाद नहीं है और उन शब्दों के प्रयोग में वक्ता का कोई दुष्ट अभिप्राय नहीं होता है। शास्त्र में प्रयुक्त अर्धमागधी, प्राकृत आदि अपभ्रंश को सत्यभाषा रूप में माननी ही होगी। यदि ऐसा स्वीकार न किया जाए तब तो देशी शब्द अपभ्रंश शब्द से कभी भी अर्थ का संबंध = अन्वय नहीं हो सकेगा। शब्द से अर्थ की उपस्थिति होने पर उस अर्थ का अन्य पदार्थ के साथ अन्वय होता है। मगर अपभ्रंश शब्द में आपके अभिप्राय से संकेत को सत्य न माना जाय अर्थात् संकेत का अभाव माना जाए, तब तो अशक्त होने से अपभ्रंश = देशीय शब्दों से अर्थ की ही उपस्थिति नहीं होगी तब तो एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ के साथ अन्वय संबंध कैसे हो सकेगा? जब तक एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ के साथ अन्वय न होगा, तब तक शाब्दबोध कैसे होगा? इस अनुपपत्ति के बल पर यही मानना होगा कि अपभ्रंश = देशीय शब्दों में भी संकेत अवश्य है वह सत्य है और इस संकेत के ज्ञाता को प्रामाणिक शाब्दबोध होता है। अतएव अपभ्रंश-देशीय शब्दों को तत्तदेश एवं शास्त्रादि में सत्य मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता है ।। २३ । ।
जनपदभाषा का निरूपण करने के बाद अवसरप्राप्त सम्मतसत्य भाषा का, जो कि सत्यभाषा का दूसरा भेद है, २४वीं गाथा से प्रकरणकार निरूपण करते हैं।
गाथार्थ :- सम्मतसत्य भाषा वह होती है जो रूढि का उल्लंघन कर के सिर्फ योगार्थ से ही वस्तु का निश्चय न कराये जैसे कि पद्म में पंकज शब्द |२४|
१ नातिक्रम्य रूढिं या योगार्थेन निश्चयं करोति । सम्मतसत्यैषा, पंकजभाषा यथा पद्मे ।। २४ ।।