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१०८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१.गा. २४
० शब्दशक्तिस्वरूपविचार ० - अथैवं जनपदसत्याऽतिव्याप्ति; न चावयवशक्त्यतिप्रसङ्गभञ्जकत्वेन समुदायशक्तेरुपादानान्न दोषः; व्युत्पत्तिविरहितरूढशब्दाऽतिव्याप्तेरिति चेत्? न, शक्तिर्हि न सङ्केतमात्रं किन्त्वनादिः शास्त्रीयोऽबाधितः सङ्केतः ।
अन्यथा लक्षणाधुच्छेदा-दित्यनतिप्रसङगादिति दिग।।२४।। जनपदभाषाघटकपदानामवयवशक्त्यैवार्थबोधकत्वं न तु समुदायशक्त्या। ततस्तत्र समुदायशक्तिज्ञानवैकल्यप्रयुक्तार्थाबोधकत्वं नास्ति। अतोऽवयवशक्त्याऽर्थबोधकजनपदसत्यभाषाघटकपदेऽतिप्रसङ्गभञ्जनायैव सम्मतसत्यालक्षणे समुदायशक्तिनिवेशादर इति न जनपदसत्यातिव्याप्तिरूपो दोष" इत्याशङ्कां निराकरोति अथमतवादी 'न चे'त्यादिना। अथमतवाद्यत्र निरासे हेतुमाह व्युत्पत्तिविरहितरूढशब्दाऽतिव्याप्तेरिति। अत्र मूलादर्श मुद्रितप्रतौ च 'व्युत्पत्तिविरहितरूढशब्दाऽव्याप्तेरित्येवं पाठः । स चाऽशुद्धः अनतिप्रसङ्गादित्यग्रिमोत्तरपक्षग्रंथाऽलग्नताऽऽपत्तेरिति ।
"समुदायशक्त्युपादानेपि पिच्चादिपदानां अवयवशक्तिशून्यतया व्युत्त्पत्तिविरहितरूढपदानां कोङ्कणजनपदसङ्केतरूपसमुदायशक्तिबोधविरहप्रयुक्ताबोधकत्ववत्त्वेन तद्धटिताया जनपदसत्यायाः सम्मतसत्यभाषालक्षणाक्रान्तत्वेनाऽतिव्याप्तिशाकिनी पृष्ठलग्ना कथं निवारणीया?" इत्याशयवन्तं अथमतं निराकरोति विवरणकारो 'ने'ति। सङ्केतमात्रमिति। सङ्केतत्वाऽवच्छेदेन न शक्तित्वं किन्त्वनादिशास्त्रीयाऽबाधितसङ्केतत्वावच्छेदेनेति। आधुनिकसञ्ज्ञाव्यवच्छेदार्थमनादिविशेषणम् ।
शंका :- जनपदसत्य भाषा में अतिव्याप्ति का निवारण करने के लिए तो सम्मतसत्य भाषा के लक्षण में समुदायशक्ति का उपादान = ग्रहण किया है। जनपद सत्य भाषा में तो अवयव शक्ति से ही अर्थ का निश्चय हो सकता है। वहाँ समुदायशक्ति मानने की क्या आवश्यकता है? तब अतिव्याप्ति कैसे? क्योंकि समुदायशक्तिज्ञानविरह से प्रयुक्त अर्थ की अबोधकता जनपदसत्य भाषा में नहीं है। - समाधान :- व्युत्पत्ति. । इति आपका यह कथन ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि - आपका यह समाधान मानना तब ठीक होता यदि जनपदभाषा के घटक सब शब्दों में अवयवशक्ति की संभावना हो। मगर ऐसा नहीं है, क्योंकि तब अवयवशक्ति से शून्य रूढ पदों में अवयवशक्ति के ज्ञान से कैसे अर्थबोध होगा? वहाँ तो समुदायशक्ति-रूढि के ज्ञान से ही अर्थबोध हो सकता है। अतः व्युत्पत्तिशून्य रूढ शब्दों में तो, जैसे कि जनपदसत्य भाषा के निरूपण में पूर्व बताए गए पिच्च आदि शब्द, समुदायशक्ति के ज्ञान के अभाव से प्रयुक्त जल आदिरूप अर्थ की अबोधकता आयेगी। अतः फिर से व्युत्पत्तिशून्य रूढ शब्द में सम्मतसत्य भाषा के लक्षण की अतिव्याप्ति वज्रलेप हो जायेगी। मान न मान मैं तेरा मेहमान!
* संकेतमात्र शक्ति न होने से सम्मतसत्य भाषा का लक्षण निर्दोष - उत्तरपक्ष * उत्तरपक्ष :- वाह! आप तो दूध में से पोरा (जंतुविशेष) निकालने का प्रयास करते हैं! देखिए, व्युत्पत्तिशून्य रूढ शब्द, जो कि जनपदसत्य भाषा के घटकरूप हैं, उनमें जो संकेत है वह शक्तिस्वरूप ही नहीं है तब समुदायशक्तिज्ञानविरहप्रयुक्त अबोधकत्व उस शब्द में रहेगा कैसे? जिसके कारण व्युत्पत्ति से शून्य रूढ पदों में सम्मतसत्य भाषा के लक्षण की अतिव्याप्ति हो सके! जनपदसंकेत शक्तिस्वरूप न होने का कारण यह है कि संकेतमात्र शक्ति नहीं है, किन्तु जो अनादि है, शास्त्रीय है और अबाधित है, ऐसा संकेतविशेष ही शक्तिस्वरूप है। जनपदसंकेत शास्त्रीय नहीं है, किन्तु अशास्त्रीय लौकिक है। अतः जनपदसंकेत शक्तिस्वरूप नहीं है। यहाँ यह शंका कि - 'जो संकेत अनादि-शास्त्रीय-अबाधित हो वही शक्तिस्वरूप है, संकेतसामान्य नहीं - इस नियम का स्वीकार न किया जाए तो क्या दोष है?, क्योंकि जब बाधक की उपस्थिति हो तभी संकोच करना आवश्यक होता है। किसी बाधक की उपस्थिति न होने पर भी संकोच करने से तो लक्षण के शरीर में अप्रामाणिक गौरव होता है - हो तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि संकेतमात्र को ही शक्तिस्वरूप माना जाय तब तो लक्षणा नाम की द्वितीय वृत्ति का उच्छेद ही हो जायेगा। आशय यह है कि - अन्वय की या तात्पर्य की अनुपपत्ति आदि उपस्थित होने पर शब्द की अन्य अर्थ में लक्षणा होती है। जैसे कि - 'गंगायां घोषः' वाक्य में गंगापद के शक्यार्थ जलप्रवाहरूप अर्थ में घोष (गोशाला) का अन्वय बाधित होता है। अतः गंगापद के शक्यार्थ को छोड कर तीररूप अर्थ में गंगापद की लक्षणा होती है। तब श्रोता को 'गंगा के तट पर गोशाला है - ऐसा निरकांक्ष