________________
११० भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. २५
० स्थापनसत्यप्ररूपणम् ० ठवणाए वर्सेती अवगयभावत्थरहियसंकेया। ठवणासच्चा भन्नइ जह जिणपडिमाइ जिणसद्दो।।२५।।'
स्थापनायां वर्तमाना स्थापनासत्या भण्यते। कीदृशी? अवगतः = प्रमितो भावार्थरहितः = योगार्थविनिर्मुक्तः सङ्केतो यस्याः सा। उदाहरणमाह यथा जिनप्रतिमायां जिनशब्द इति ।
अयं भावः जिनशब्दो यथा भावजिने प्रवर्त्तते तथा स्थापनाजिनेऽपि निक्षेपप्रामाण्यात्, नानार्थानां च शब्दानां प्रकरणादिमहिम्नैव विशेष नियमनमिति। यत्र प्रकरणादिबलाबहुशो भावे प्रवर्तमानानामपि शब्दानां नियन्त्रितशक्तितया स्थापनाप्रतिपादकत्वप्रतिपत्तिस्तत्र स्थापनासत्यत्वमिति । मिति।" एवं व्याख्या वर्त्तते। 'योगार्थविनिर्मुक्त' इति। अत्रेदं ध्येयं यदुत स्थापनासत्यायाः सङ्केतो यदा स्थापना बोधयति तदा तत्रैव स्थापनायां सङ्केतस्य योगार्थविनिर्मुक्तत्वम्, अवयवार्थबाधात्, न त्वन्यत्र भावजिनादाववयवार्थाबाधादिति। जिनशब्दः स्थापनाजिनेऽपि वर्तत इत्यत्र हेतुमाह निक्षेपप्रामाण्यादिति निक्षेपानुशासनप्रामाण्यादित्यर्थः । निक्षेपानुशासनं चाऽत्र भद्रबाहस्वामिवचनम - "जत्थ य जं जाणिज्जा, णिक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं| जत्थ वि य न जाणिज्जा, चउक्कयं णिक्खिवे तत्थ ।। (आ. नि. गा. ) धवलायामप्युक्तम्- "जत्थ बहुं जाणिज्जा अवरिमिदं तत्थ णिक्खिवे णियमा। जत्थ बहुवं ण जाणदि चउट्ठयं णिक्खिवे तत्थ ।। (ध. १४ गाथा) __नन्वेवं सत्यव्यवस्था स्यादित्याशङ्कां निरस्यति- 'नानार्थानामिति। यत्रेति। यस्मिन् जिनादिशब्द इत्यर्थः । अस्य च स्थापनाप्रतिपादकत्वप्रतिपत्तिरित्यनेनाऽन्वयः। नियन्त्रितशक्तितयेति निक्षेपानुशासननियन्त्रितशक्तितयेत्यर्थः । अत्रेदं ध्येयम् जिनादिशब्दो यदा यत्र प्रकरणादिबलेन स्थापनाप्रतिपादकः तत्रैव प्रकरणे जिनादिशब्दे स्थापनासत्यत्वम्, अन्यत्र तु नामसत्य-रूपसत्य-भावसत्यत्वादिकमपि न विरुध्यते।। कही जाती है। जैसे कि - जिनप्रतिमा में जिनशब्द ।२५ ।
* स्थापनासत्य भाषा -३ * विवरणार्थ :- जिस भाषा का संकेत योगार्थ व्युत्पत्त्यर्थ भावार्थ से शून्य में है - ऐसा प्रमाण से निश्चित हुआ है वह भाषा जब स्थापना में प्रवर्तमान होती है तब स्थापनासत्य भाषा कही जाती है। आशय यह है कि - जो भाषा स्थापना का, जिसमें भाषा का अवयवार्थ-योगार्थ बाधित है, बोध कराती हो वह भाषा स्थापना सत्यभाषा है। जैसे कि जिनप्रतिमा में जिनशब्द । जिनपद का योगार्थ है - रागादि अंतरंगशत्रुजेतृत्व। जैसे रागद्वेषादि शत्रुओं को जीतनेवाले केवली जिन आदि में जिनशब्द की प्रवृत्ति होती है। वैसे रागादिजेतृत्वरूप योगार्थ से शून्य ऐसी जिनप्रतिमा में भी जिनशब्द का प्रयोग होता है, क्योंकि निक्षेप अनुशासन से, जिनशब्द की स्थापना में भी शक्ति है, यह प्रमाणसिद्ध है। चरम श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहुस्वामीजी ने श्रीआवश्यकनियुक्ति में कहा है कि - 'कम से कम सब शब्दों के चार निक्षेप अवश्य होते हैं।' अर्थात् शब्दमात्र की जघन्य से नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव में शक्ति होती है। शब्दमात्र कम से कम नाम-स्थापना-द्रव्य-भावनिक्षेप का वाचक होता है। श्रीभद्रबाहुस्वामीजी के वचन की प्रामाणिकता से स्थापना में भी शब्द की शक्ति सिद्ध होती है।
* प्रकरणादि के बल से अर्थनियमन * - नानार्थानां इति । यहाँ यह शंका होने का अवकाश है कि - "यदि शब्दमात्र की जघन्यतः नामादि चार निक्षेप में शक्ति है, तब तो नामनिक्षेप के स्थान में स्थापनानिक्षेप की और स्थापनानिक्षेप के स्थान पर नामादिनिक्षेप की और भावनिक्षेप के स्थान में नामादि निक्षेप की प्रवृत्ति होने की आपत्ति आयेगी। ऐसा होने पर तो भारी गड़बड़ी हो जायेगी - अव्यवस्था होगी। अतः शब्दमात्र की नामादि चार निक्षेप में शक्ति मानना ठीक नहीं है - किन्तु यह शंका भी इसलिए निराधार सिद्ध होती है कि - 'शब्दमात्र की नामादि निक्षेप में शक्ति होने पर भी प्रकरणादि के बल से शब्द से प्रतिनियत विशेष अर्थ का ही बोध होगा, सब अर्थ का नहीं। जैसे कि - 'राम और लक्ष्मण दोनों चले गये।' 'औरों की बात छोडो, तुम अपनी कहो।' 'लकीर और सीधी करो' इन तीन वाक्यों में और
१ स्थापनायां वर्तमानाऽवगतभावार्थरहितसंकेता। स्थापनासत्या भण्यते यथा जिनप्रतिमायां जिनशब्दः ।।२५।।