________________
१०४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. २३
० न्यायमञ्जरीव्युत्पत्तिवादकारमतनिकन्दनम् ० सङ्केतज्ञानत्वेनैव शाब्दबोधहेतुत्वात्, संस्कृतसङ्केतस्यैव सत्यत्वं नापभ्रंशसङ्केतस्येत्यर्थस्य विनिगन्तुमशक्यत्वाच्चेत्यन्यत्र (ग्रन्थाग्रं-३०० श्लोक) विस्तरः । - एतेन शब्दस्य नैसर्गिकशक्त्याख्यसम्बन्धाभावादीश्वरविरचितसमयनिबन्धनः शब्दार्थव्यवहारो नाऽनादिरिति (न्या. मं. चतु. आ. पृ. ३०) न्यायमञ्जरीकारवचनमपहस्तितम्, नैसगिकसामर्थ्यसभावात्। एतच्च-'स्वाभाविकसामर्थ्यसमयाभ्यामर्थबोधनिबन्धनं शब्दः (प्र. तत्त्वा. ४/११) इत्येनत्सूत्रं विवृण्वता श्रीवादिदेवसूरिणा महता प्रबन्धेन स्याद्वादरत्नाकरे स्थापितम्।
ईश्वरेच्छारूपशक्तेरसिद्धत्वात्, ईश्वरेच्छाज्ञानत्वापेक्षया लाघवेन सङ्केतज्ञानत्वेनैव शाब्दबोधहेतुताया युक्तत्वाच्चेत्याशयेनाह-सङ्केतज्ञानत्वेनैवेति। अनेन शक्तिलक्षणान्यतरज्ञानत्वेन शाब्दबोधहेतुता निरस्ता कारणतावच्छेदकगौरवात् । तदुक्तं स्याद्वादकल्पलतायां 'शाब्दबोधे शक्तिलक्षणाऽन्यतरत्वेन प्रयोजकत्वापेक्षया शक्तित्वेनैव तत्त्वौचित्यादिति (स्या. क. स्त. ११/२० गा. वृ.) शक्तित्वेनेति सङ्केतत्वेनेत्यर्थः, पराभिमतशक्त्यसिद्धेः ।
एतेन व्युत्पत्तिवादे यद् गदाधरेण - न हि 'यूस्त्र्याख्यौ नदी'त्यनुशासनात्स्त्र्याख्येदूदन्तादिशब्दे नद्यादिपदस्य शक्तिः सिध्यति किन्तु तदीयसङ्केत एव। अत एव नद्यादिसंज्ञा आधुनिकसंकेतशालित्वात्पारिभाषिक्येव न त्वौपाधिकी (व्य.का.१/प.१८६) इत्युक्त तान्नरस्तम् शाक्तसङ्कतलक्षणान्यतमशागत्पा
नरस्तम शक्तिसंकेतलक्षणान्यतमज्ञानत्वेन शाब्दबोधहेतृत्वकल्पनापेक्षया सङ्केतज्ञानत्वेनैव तत्त्वकल्पनाया औचित्यात्, अन्यतमत्वस्य तद्भिन्नत्वे सति तद्भिन्नत्वे सति तद्भिन्नभिन्नत्वरूपत्वादिति दिक।
विनिगन्तुमशक्यत्वादिति। एकतरपक्षपातियुक्तिविरहेण निश्चेतुमशक्यत्वादित्यर्थः । अयं भावः, संस्कृतशब्देष्विवाऽपभ्रंशशब्देष्वपि सङ्केतसद्भावात् तज्ज्ञाने सत्यपभ्रंशशब्दादप्यभ्रान्तशाब्दबोधो गिर्वाणगुरुणापि न निवारयितुं शक्यते, अन्यथाऽर्धजरतीयप्रसङ्गात्। शाब्दबोध हो सके?
* शक्ति संकेतरूप है * समाधान :- 'संकेतज्ञानत्वेन.' इति । शक्ति ईश्वरेच्छारूप नहीं है किन्तु संकेतरूप ही है। अमुक शब्द का अमुक अर्थ में संकेत है - इत्याकारक ज्ञान होने पर श्रोता को शाब्द बोध होता है। अतः संकेतज्ञान को ही शाब्दबोध का हेतु मानना उचित है। ईश्वरेच्छा का ज्ञान शाब्दबोध का हेतु नहीं है। __ शंका :- ठीक है, हमने ईश्वरेच्छारूप शक्ति मानी और आपने संकेतरूप शक्ति मानी। मगर इससे अपभ्रंश स्थल में जो शाब्दबोध होता है वह सत्य ही है, भ्रान्त नहीं है - यह सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि संकेत भी संस्कृत शब्द में ही होता है, अपभ्रंश शब्द में नहीं। अतः जनपदसंकेत, जो अपभ्रंश शब्दो में होता है, असत्य ही है। अतः उस असत्य संकेत के ज्ञान से जो शाब्दबोध होता है उसको सत्य = प्रमाण = अभ्रान्त कहना ठीक नहीं है।
समाधान :- संस्कृतसंकेत. इति । क्या यह कोई राजाज्ञा है कि - ‘संकेत संस्कृत शब्द में हो तब सत्य है और अपभ्रंश शब्द में हो तब असत्य है - संस्कृत शब्द में संकेत की सत्यता और अपभ्रंश में संकेत की असत्यता तब मान्य हो सकती जब इसमें
।। मगर इस विषय में कोइ निश्चायक प्रमाण या तर्क नहीं है। अतः आपकी बात कैसे मान्य हो सकती है? यदि प्रमाण के बिना भी विषय की सिद्धि हो तब हम ऐसा कहेंगे कि - 'अपभ्रंश शब्द में ही सत्य संकेत होता है, संस्कृत शब्द में नहीं - तब आप क्या उत्तर देंगे? आप इस विषय में जो उत्तर देंगे हम भी उसी उत्तर से समाधान करेंगे। इस विषय का विस्तार अन्यत्र द्रष्टव्य है ऐसा विवरणकार ने सूचित किया है।
वैयाकरण :- अपभ्रंश भाषा में संकेत मान कर जनपदभाषा में सत्यता का आपने जो समर्थन किया है वह तो ठीक है। मगर जनपदभाषा को सर्वत्र सत्य मानना मुनासिब नहीं है। जिस देश में संकेत किया हो उस देश में ही उसको सत्य मानना चाहिए।