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* वर्धमानोपाध्यायमतनिरास: *
__. १०३ तत्तत्पदबोद्धव्यत्वप्रकारित्वावच्छिन्नेश्वरेच्छारूपशक्तेरप्यसिद्धेः। शब्दस्य तस्करे द्रविडादौ पुनरोदन इति।" (स्या. रत्ना. ४११) स्याद्वादमञ्जर्यामप्युक्तं "चौरशब्दोऽन्यत्र तस्करे रूढोऽपि दाक्षिणात्यानामोदने प्रसिद्धः। यथा च कुमारशब्दः पूर्वदेशे आश्विनमासे रूढः । एवं कर्कटीशब्दादयोऽपि तत्तद्देशापेक्षया योन्यादिवाचका ज्ञेयाः" (स्या.मंश्लो. १४)। ....
'तत्तत्पदबोद्धव्यत्वप्रकारित्वाऽवच्छिन्नेश्वरेच्छारूपशक्ते रिति । 'अस्मात्पादादयमर्थो बोद्धव्य' इत्याकारकतत्तत्पदजन्यबोधविषयतात्वावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितप्रकारितावच्छिन्नेश्वरेच्छारूपशक्तेरित्यर्थः। असिद्धरित्यस्य हेतुः पूर्वमेवोक्तः। 'ईश्वरासिद्धाविति। ईश्वरासिद्धिश्च प्रकृतविवरणकारेणैव एतत्प्रकरणरचनाया:पश्चात् स्याद्वादकल्पलतायां तृतीयस्तबके विस्तरेण कृतेति ततोऽवसेया।
किञ्चेश्वरमनङ्गीकुर्वतामपि वाच्यत्व-वाचकत्वव्यवहारदर्शनान्नेश्वरेच्छारूपा शक्तिः। एतेन यद् वर्धमानोपाध्यायेन अन्वीक्षानयतत्त्वबोधे"यः शब्दो यत्रेश्वरेण सङ्केतितः स तत्र शक्तः साधुरिति चोच्यते" (अन्वी. ५/२) इत्युक्तं तन्निरस्तम्। अस्तु वा ईश्वरः तथापि तेन संस्कृतशब्देष्वेव सङ्केतः कृतो नापभ्रंशशब्देष्वित्यत्र विनिगमनाविरहात्, पाणिन्यादिसङ्केतितनदीवृद्ध्यादिपदेन प्रामाणिकशाब्दबोधानुपपत्तेश्च । पद में शक्ति होती है वह पद ही अर्थविशेष का शाब्दबोध कराने में समर्थ होता है। जो अशक्त है अर्थात् शक्ति से रहित है वह शब्द अर्थ का शाब्दबोध कराने में समर्थ नहीं होता है। शक्ति तो संस्कृत शब्दो में रहती है, अपभ्रंश आदि में नहीं। अतः अपभ्रंश से शाब्दबोध होता ही नहीं है। फिर भी यदि आप यदि ऐसा कहो कि "अपभ्रंश शब्दों से भी लोगों को अर्थबोध शाब्दबोध तो होता ही है। अतः अर्थविशेष के शाब्दबोध रूप कार्य से अपभ्रंश शब्दो में भी शक्ति होती है, यह सिद्ध होता है" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि शब्द में शक्ति हो तभी उससे शाब्दबोध हो, अन्यथा न हो - ऐसा कोई नियम नहीं है। शब्द में शक्ति न होने पर भी यदि श्रोता को शब्द में शक्ति का भ्रम हो जाय तब उस शब्द से उस श्रोता को शक्तिभ्रम के कारण शाब्दबोध हो सकता ही है। प्रस्तुत में अपभ्रंश शब्द स्थल में भी ऐसा ही है। अपभ्रंश शब्द में शक्ति - अर्थबोध कराने का सामर्थ्य नहीं है मगर प्रकृत जन को अपभ्रंश शब्द में शक्ति का भ्रम हो गया है। इसी सबब उस शक्तिभ्रम के कारण आम जनता को अपभ्रंश शब्द से अर्थ का बोध होता है। मगर इस अर्थबोधरूप कार्य से अपभ्रंश शब्द में शक्ति का अनुमान नहीं हो सकता है, क्योंकि इस अर्थबोध का कारण शक्ति नहीं है किन्तु शक्तिभ्रम है। हाँ, शक्तिभ्रम का अनुमान हो तो हमें कोई क्षति नहीं है। अतः आपने जो जनपद सत्यभाषा का लक्षण बताया है कि "जो शब्द सिर्फ जनपद के संकेत से अर्थबोध कराता हो वह जनपद सत्य है" - वह ठीक नहीं है, क्योंकि जो भाषा शक्तिभ्रम से शाब्दबोध कराये उसे सत्य कहना कहाँ तक ठीक हो सकता है?
* ईश्वरेच्छास्वरूप शक्ति असिद्ध है . स्याद्वादी * स्याद्वादी :- नैयायिक के शागिर्द! ऐसा कहने से तो आपकी इज्जत दो कौडी की हो जायेगी। अतः ऐसा मत कहिए कि अपभ्रंश में शक्ति नहीं है। जो चीज अन्यत्र प्रसिद्ध हो उसका अन्यत्र निषेध हो सकता है, अप्रसिद्ध चीज का नहीं। यदि आपको अभिमत शक्ति संस्कृत शब्द में सिद्ध हो तब तो अपभ्रंश में शक्ति नहीं है ऐसा निषेध करना उचित होता। मगर संस्कृत शब्द में भी आपको इष्ट शक्ति नहीं रहती है। इसका कारण यह है कि आपने शब्द में रही हुई शक्ति को ईश्वरेच्छारूप मानी है। "अमुक पद से अमुक अर्थ का बोध हो" - "यह वस्तु अमुक पद से जन्य शाब्दबोध का विषय हो" ऐसी ईश्वर की इच्छा ही शक्तिरूप से आपको मान्य है, जिसमें तत्पदजन्यबोधविषयता का प्रकारता रूप से भान होता है। तत्पदजन्यबोधविषयता उस ईश्वरेच्छा में प्रकार = विशेषणरूप से ज्ञात होती है। मगर यह ईश्वरेच्छारूप शक्ति तब सिद्ध होती यदि ईश्वर सिद्ध हो। आपको जगत्कर्ता रूप से ईश्वर मान्य है, वह सर्वथा असिद्ध है। जब जगत्कर्ता ईश्वर ही नहीं है तब ईश्वरेच्छा बेचारी कैसे अपना स्थान प्राप्त करेगी? न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी! जगत्कर्तारूप से ईश्वर नहीं है - इस विषय की सिद्धि प.पू. महोपाध्याय यशोविजयजी महाराज ने स्याद्वाद कल्पलता में बडे विस्तार से की है।
शंका :- यदि ईश्वरेच्छारूप शक्ति आपको मान्य नहीं है, तब शक्ति आपको किस रूप से मान्य है? जिसके ज्ञान से श्रोता को