________________
* दशविधसत्यविभागप्रदर्शनम् *
१०१ सम्यगुपयोगपूर्वकत्वेन प्रातिस्विकरूपेण वाऽऽराधकशब्दत्वस्य चाऽसत्याद्यतिव्याप्तेरिति दिग्।
सा च दशधा, जनपदसत्या, सम्मतसत्या, स्थापनासत्या, नामसत्या, रूपसत्या, प्रतीत्यसत्या, व्यवहारसत्या, भावसत्या, योगसत्या, औपम्यसत्या चेति ।।२२।। तत्र पूर्वं जनपदसत्याया एव लक्षणमाहविहिताराधकत्वज्ञानाधीनमिति प्रथमेऽन्योन्याश्रयबुभुक्षितराक्षसी कण्ठपृष्ठिलग्ना न कथमपि पश्चात्कर्तुं प्रभूयते भूतपतिनाऽपि । अत एव 'आराधनी विहिते'त्यनुक्त्वा आराधनी परिभाषिते'त्युक्तम्। ..
द्वितीयतृतीयविकल्पयोरतिव्याप्तिः निर्लज्जकुट्टिनी कण्ठपीठनिविष्टा कथमुत्सारणीयेत्याह-सम्यगुपयोगपूर्वकत्वेनेत्यादि। सम्यगुपयोगपूर्वकं भाष्यमाणत्वेनाऽऽराधकत्वाभ्युपगमेऽपवादतः सम्यगुपयोगपूर्वकं मृषामिश्रभाषाभाषणेऽतिव्याप्तिः स्यात् । न च निश्चयनयमते इष्टापत्तिरिति वाच्यम् व्यवहारनयामिमतसत्यभाषालक्षणस्य प्रक्रान्तत्वात्। नाऽपि तृतीयः, अनिर्वचनात् । न च प्रति स्वं यद्रूपं वर्तते तत्प्रातिस्विकरूपमिति वाच्यम् मृषादावतिव्याप्तेः । न च सत्यभाषावृत्तित्वेन विशेषणान्न दोष इति वाच्यम् अन्योन्याश्रयप्रसङ्गात् । एतेन सत्येतराऽवृत्तित्वे सति सत्यमात्रवृत्ति यद्रूपं तत्प्रातिस्विकरूपमिति निरस्तम् व्यवहारानुपयोगित्वाच्च । अत एव मृषा-मिश्राऽनुभयभाषाभिन्नत्वे सति भाषात्वं प्रातिस्विकरूपं तेन रूपेणाऽऽराधकत्वं सत्याभाषालक्षणमित्यपि परास्तम् विशेषण-विशेष्यभावे विनिगमनाविरहेणाऽप्रामाणिककल्पनागौरवात् भेदप्रतियोगिमृषादिज्ञानाभावे तद्भेदघटितप्रातिस्विकरूपस्याऽज्ञानेन सत्यत्वाज्ञानप्रसङ्गात्, लाघवेन परिभाषितत्वेनाऽऽराधकत्वाभ्युपगमस्यैव युक्तत्वाच्चेति निपुणतरं निभालनीयमिति सूचनार्थं दिगित्युक्तम् ।।२२।। सत्यत्व हो, मगर यहाँ व्यवहारनय का आश्रय ले कर सत्यभाषा के लक्षण का विचार चल रहा है। अतः तादृश आपवादिक मृषा या मिश्र भाषा में सत्यभाषा के लक्षण की अतिव्याप्ति आयेगी।
शंका :- तब विहितत्व और सम्यग् उपयोगपूर्वकत्व दोनों को छोड कर प्रातिस्विक रूप से आराधकत्व को ही सत्यभाषा का लक्षण मानना चाहिए। मतलब यह है कि अपने विलक्षण स्वरूप से हि आराधकभाषात्व को सत्यभाषा का लक्षण मानना संगत है।
* प्रातिस्विकरूप से आराधकत्व सत्यभाषा का लक्षण नहीं है * समाधान :- प्रातिस्विकरूपेण वा.' इति । आपकी यह बात भी गलत है। इसका कारण यह है कि चारों भाषाओं में अपना प्रातिस्विकरूप = वैलक्षण्य तो रहता ही है। अतः प्रातिस्विकरूप से आराधकत्व मानने में तो मृषा आदि भाषा में भी सत्यभाषा के लक्षण की अतिव्याप्ति होगी। यदि प्रातिस्विकरूप का अर्थ ऐसा किया जाय कि - "मृषा आदि भाषा में न रहनेवाला ऐसा शब्दत्व ही आराधकत्व अर्थात् आराधक - शब्दत्व है" - तब तो जब तक असत्य आदि भाषा का ज्ञान न हो तब तक तादृश प्रातिस्विकरूप से आराधकभाषात्व का ज्ञान न होने से सत्यभाषारूप लक्ष्य दुर्जेय हो जायेगा। अतः पूर्व में जो कहा था कि 'पारिभाषिकरूप से ही आराधकत्व सत्यभाषा का लक्षण है' वही मुनासिब लगता है। इस संबंध में सूक्ष्मता से अधिक विचार किये जा सकते हैं - इस बात की सूचना देने के लिए विवरणकार ने 'दिग्' शब्द का प्रयोग किया है।
यहाँ यह बात ध्यातव्य है कि - भाषा तो भाषावर्गणा के पुद्गलद्रव्यों से निष्पन्न होने से जड ही है। अतः इसमें आराधकत्व नहीं हो सकता है। आराधक या विराधक तो भाषक = वक्ता होता है। फिर भी यहाँ भाषा और भाषक में अभेद का उपचार कर के भाषा में आराधकत्व व्यवहारनय की दृष्टि से मान्य है। अतः 'आराधकशब्दत्वस्य' ऐसा प्रयोग जो विवरणकार ने किया है, यह मुनासिब है - निर्दोष है। पूर्व में भी हमने जहाँ आराधकत्व बताया है वह व्यवहारनय की दृष्टि से आराधकशब्दत्व ही है - यह ख्याल में रखे।
* सत्य भाषा के दश भेद - व्यवहारनय * 'सा च.' इति । व्यवहारनय से सत्यभाषा के दश भेद होते हैं। (१) जनपदसत्य भाषा, (२) सम्मतसत्य भाषा, (३) स्थापनासत्य भाषा, (४) नामसत्य भाषा, (५) रूपसत्य भाषा, (६) प्रतीत्यसत्य भाषा, (७) व्यवहारसत्य भाषा, (८) भावसत्य भाषा (९) योगसत्य भाषा, (१०) औपम्यसत्य भाषा ।।२२।।